गुरुवार, 14 मार्च 2013

वरहिया जैन :एक परिचय

 

जैन धर्म और दर्शन एक अतिप्राचीन और अवैदिक चिंतन-परंपरा है, जिसका एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास है |भारतीय दर्शन के अक्षय ज्ञानकोष को भरने में जैन चिंतन-परंपरा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है|
जैन मतावलंबियों की संख्या यद्यपि बहुत कम है लेकिन उन्होंने जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्रों में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराई है |
             जैन शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन 'शब्द से हुई है जिसका अर्थ है इन्द्रियजेता अर्थात इन्द्रियों को जीतनेवाला |जिन्होंने आत्मानुशासन सिद्ध कर इन्द्रियों को वशंगत कर लिया हो ,ऐसे जितेन्द्रिय 'जिन' कहलाते हैं और 'जिन' के अनुयायीवृन्द ही जैन कहलाये हैं |
             प्राचीन आर्षग्रंथों में जैनों का उल्लेख आर्हत और निर्ग्रन्थ नाम से भी हुआ है |जैन परंपरा के पुरस्कर्ता चौबीस महापुरुषों में से अंतिम और चौबीसवें महापुरुष महाश्रमण वर्धमान महावीर का बौद्ध ग्रंथों में 'निगंठ नातपुत्त' के नाम से उल्लेख है |निगंठ या निर्ग्रन्थ से आशय ऐसे यतियों से है ,जिन्होंने दुर्धर्ष तप कर रागद्वेष  की मनोग्रंथियों का मूलोच्छेद कर इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की हो |
             जैन परंपरा में कालक्रम से मान्यता भेद के कारण दो संप्रदाय या आम्नाय अस्तित्व में आये ,जिन्हें क्रमशः दिगंबर और श्वेताम्बर नाम से जाना जाता है |दिगंबर और श्वेताम्बर जैसाकि नाम से ही विदित और स्पष्ट हो जाता है कि यह नामकरण साधुओं या यतियों  के वस्त्र न पहनने और श्वेत वस्त्र धारण करने के आधार पर हुआ है |
              दिगंबर आम्नाय की चौरासी उपजातियों में से ही एक वरहिया उपजाति है जिसका भौगोलिक प्रसार क्षेत्र प्रमुख रूप से प्राचीन गोपाचल जनपद (म.प्र. स्थित वर्तमान ग्वालियर )का ग्राम्यांचल रहा है |वरहिया जाति सबसे प्राचीन जैन संघ मूलसंघ और बलात्कार गण(यहां बलात्कार शब्द का तत्समय प्रचलित अर्थ बलपूर्वक ग्रहण करें) के अंतर्गत है और कुंदकुदाम्नाय, सरस्वती गच्छ में परिगणित है। हालांकि कई फूलमाल पचीसी (जो वास्तव में जैन धर्मावलंबी समाजों की सूची है) में वरहिया जाति का उल्लेख नहीं। फिर भी प्रमुख सूचियों में इस जाति का उल्लेख है।जिन फूलमाल पचीसी में वरहिया जाति का उल्लेख नहीं है उसका कारण उन ग्रंथकर्ताओं का दूरस्थ और ग्राम्य क्षेत्र में निवासरत वरहिया जाति से उनका अपरिचय ही है। 
           विक्रम की 15वीं 16वीं शताब्दी से इस समाज के विकास के बारे में पता चलता है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर के बड़े मन्दिर में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के पादलेख के अनुसार "सम्वत् 1545 वर्षे वैसाख सुदी 10 चन्द्र दिने श्री मूलसंघे, सरस्वती गच्छे ,बलात्कार गणे ,श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री जिन चन्द्रदेवाः वरहिया-कुलोद्भव साहु लखे भार्या कुसुमा तयो पुत्र साहु मल्लू तस्य भार्या उदयश्री तस्य पुत्र चन्द्र ज्येष्ठ, सा. लहण तत्कनिष्ठ सा. छोटे तत्कनिष्ठ सा. वीरसिंह तत्कनिष्ठ सा. अर्जुन तत्कनिष्ठ सा. प्रभु तत्कनिष्ठ सा. पलटू तत्कनिष्ठ सा. बल्दु तेषां मध्ये सा. अर्जुन तस्य भार्या मता तेन अजुनेनेदं आदीश्वरबिंवं स्व पूजनार्थ करोपितां ।" यह कामताप्रसाद जैन की पुस्तक 'प्रतिमा-लेख संग्रह के प्रथम पृष्ठ एवं भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तक सम्पादक विद्याधर जोहारपुर के पृष्ठ 104 के लेखांक 262 पर दिया है।
             गुरुवर्य पंडित गोपालदास जी वरैया जिन्होंने समूचे हिंदी प्रदेश और उसके बाहर भी जैन न्याय और दर्शन की दुन्दुभी बजाई और जैन धर्म की कीर्ति पताका फहराकर आध्यात्मिक ज्ञान का आलोक फैलाया है ,इसी उपजाति के गौरव-रत्न हैं |वर्तमान में भारतवर्ष में जितने भी जैन विद्वान् और मनीषी हैं ,उनमें से अधिकांश पंडित गोपालदास जी की शिष्य-प्रशिष्य परंपरा में आते हैं |
            ग्राम्यांचल में निवास करने के फलस्वरूप अन्य जैन जातियों के साथ इसका सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर्विनमय न होने के कारण यह उपजाति अल्पज्ञात रही है |इसके  मूल उद्गम स्थान को लेकर भी मतभेद  हैं  |ग्वालियर निवासी श्री रामजीत जी जैन ने 'वरहियान्वय'नाम से वरहिया जाति का इतिहास लिखा है जो इस जाति के समाजशास्त्रीय अध्ययन का पहला व्यवस्थित प्रयास है |हालांकि इसमें कई सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गये हैं और मूल उद्गम स्थान के बारे में उनकी स्थापना भी ठोस अन्तःसाक्ष्यों पर आधारित न होने के कारण एकांगी है किन्तु फिर भी यह इस दिशा में पहला प्रयास होने के नाते उल्लेखनीय और स्तुत्य है |
         जनश्रुति के आधार पर 'वरहिया'पद की व्याख्या श्रेष्ठ ह्रदय वाले व्यक्ति के रूप में की जाती है ।यह एक गुणवाची पद है और निश्चित रूप से यह स्थानवाची नहीं है।
 वरहिया शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के वर्ह: से हुई जान ‌पड़ती है जिसका अर्थ -मोरपंख (अमरकोश),पत्ता (शब्द रत्नावली) तलवार की म्यान (हेमचंद्र) श्रेष्ठ (कवि कल्पद्रुम) तथा छत्र,चमर है। ऊपर उल्लिखित सभी अर्थ यहां अभीप्सित हैं क्योंकि इन उपकरणों  का सम्बन्ध अटूट रूप से जैन धर्मावलंबियों से रहा है। उत्कृष्ट और धर्मानुमोदित आचरण के कारण आर्हत-मत अनुगामियों  के समूह विशेष को धर्माचार्यों द्वारा यह अभिधान प्राप्त हुआ।
        विवाह जैसे महत्वपूर्ण संस्कार किसी भी जाति के सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और इन मांगलिक अवसरों पर होने वाले विशिष्ट अनुष्ठानों और लोकाचारों में उस जातीय समूह के  सांस्कृतिक कूट संकेत छिपे रहते हैं जिन्हें विकोडित करने पर  अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं |वरहिया जाति के  वैवाहिक लोकाचारों में 'इड़रे-विडरे ' और 'शिले-कूकरे 'जैसे विशिष्ट लोक शैलीबद्ध  गीत गाये जाते हैं जिन्हें रस्म निभाने के लिए पूरा तो किया जाता है लेकिन उन्हें बूझने का कोई प्रयास नहीं हुआ |मेरे मतानुसार यदि इस सांस्कृतिक पहेली को सुलझा लिया गया तो अब तक अनुत्तरित अनेक प्रश्नों के उत्तर हमें मिल सकते हैं और जिसके लिए गहन शोध हमारी बाट जोह रहा है ||

2 टिप्‍पणियां:

  1. तन से जैसे कर्म हैं, मुखग में वैसे बैन |
    मन में वैसे भाव हैं, तब समझो वह जैन ||

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  2. कई जानकारी मेरे लिए नई है। आभार हम तक पहुंचाने के लिए।

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