सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

घटते लिंगानुपात के बरक्स बढ़ता सामाजिक विचलन


घटते लिंगानुपात के चलते वरहिया जैन समुदाय इस समय गंभीर सामाजिक संकट से गुजर रहा है जिसका कारण विवाहार्थी लड़कों की तुलना में विवाहार्थी लड़कियों की संख्या में उल्लेखनीय कमी होना है |योग्य वर की तलाश में वरहिया जैन समुदाय की कई लड़कियों का विजातीय जैन समुदायों  के लड़कों के साथ विवाह होने से यह स्थिति और बदतर हुई |हाँलाकि कन्या के अनुरूप योग्य वर की तलाश करना हर अभिभावक की चाहत रहती है | इसलिए विजातीय जैन समुदायों में विवाह सम्बन्ध जोड़ना गलत नहीं कहा जा सकता बल्कि यह समय की मांग है |लेकिन विवाहार्थी लड़कियों की घटती उपलब्धता से जो गंभीर सामाजिक संकट पैदा हुआ है ,उससे विवाह की देहली-सीमा पर खड़े विवाह योग्य लड़को के जीवन में घोर हताशा घिर रही है और वह जीवन संगिनी की तलाश में विजातीय,अजैन और सामाजिक रूप से हीन (?) समुदायों की ओर रुख कर रहे हैं |हाल ही में ऐसे कई विवाह हुए हैं और कई प्रत्याशित हैं |जिन घरों में ऐसे विवाहार्थी लडके हैं उनके अभिभावकों का उनके प्रति चिंतातुर होना स्वाभाविक है और उनका अपनी संतानों के भविष्य को सुखमय और सुरक्षित करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने की यह कोशिश उनके प्रति सहानुभूति तो पैदा करती है लेकिन यह कितना उचित है ,एक विचारणीय प्रश्न है |
                                    यहाँ संदर्भित प्रतिलोम विवाहों ,जिनमें कथित रूप से वधू-मूल्य चुकाया जाता है या जो किसी अंधे प्रेम प्रसंग की परिणति होते हैं -में लड़की के भिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का होने के कारण परिवार में उसके साथ तालमेल में कठिनाई होती है, जो इस समस्या से जुड़ा एक महत्वपूर्ण बिंदु है | इसके अतिरिक्त लड़की के बहिरागत होने तथा  उसके अतीत और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में अनिभिज्ञता के कारण उसके प्रति विश्वास का संकट बना रहता है और सम्बंधित परिवार एक अचीन्हे असुरक्षा-बोध से ग्रस्त रहता है |यह बिंदु भी यहाँ महत्वपूर्ण है |
                                                        वरहिया जैन समाज के मठाधीश जिन्हें इस विषय में ठोस पहल करनी चाहिए वे इस गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न पर भीष्म की तरह किंकर्तव्यविमूढ़ और मौन हैं |शायद उनकी निष्ठा समाज के प्रभावशाली वर्ग के हितसाधन से जुड़ी है |गरीब लोगों के सही और अच्छे कामों में अक्सर खोट ढूढ़ने वाले लोग जब अमीरजादों के गलत कामों को सही ठहराने के लिए उनके पक्ष में एकजुट होकर बेढब तर्क गढ़ते नज़र आते हैं तो दुःख तो होता है लेकिन हैरानी बिल्कुल नहीं होती |
                                                         इस समस्या को हल्के ढंग से लेने से इसके विकराल रूप धारण करने की आशंका है |यह एक बड़े आसन्न सांस्कृतिक और सामाजिक संकट की दस्तक है |यदि इस समस्या के समाधान की दिशा में समय रहते गंभीर और ठोस पहल नहीं की गई तो इससे समूचे समुदाय का सामाजिक तानाबाना प्रभावित होगा |हम सभी को इस दिशा में सचेत होकर प्रयास करने की जरुरत है |

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