शुक्रवार, 21 मार्च 2014

अस्मिता का आसन्न संकट

घटते लिंगानुपात याने लड़कों की तुलना में लड़कियों की कम संख्या के चलते एक विकट सामाजिक संकट पैदा हुआ है |जिसके फलस्वरूप विवाह की देहली सीमा पर और उसके पार खड़े वरहिया जैन समुदाय के जिन युवाओं का गृहस्थी बसाने का सपना टूटकर बिखर चुका है ,वे अपने भविष्य को लेकर बेहद तनावग्रस्त और उद्विग्न हैं |इन छिके हुए (समाज में विवाह से बहिष्कृत )युवाओं ,जिनकी एक बड़ी संख्या है -के परिजनों का अपने बच्चों के गृहस्थ  जीवन को लेकर चिंतित होना उचित और स्वाभाविक है |उन्हें इसका एक ही सहज समाधान नज़र आता है -विजातीय समुदायों की कन्याओं को अपनी बहू बनाकर लाना |चूँकि सभी सवर्ण समुदाय घटते लिंगानुपात की समस्या से जूझ रहे हैं इसलिए लड़कियों की कमी इतर समुदायों में भी है | दूसरे ,स्वजाति में विवाह सम्बंध के आग्रह के चलते लोग सामान्यतः  विजातीय समुदायों में विवाह सम्बंध जोड़ने में हिचकिचाते हैं और विवशता में ही यह विकल्प चुनते हैं |किन्तु पिछड़े समुदायों में जहाँ लिंगानुपात की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर है ,लड़कियों की बहुलता है |इसलिए सब ओर से नाउम्मीद लोग आज कुलीनता का किसी भी सीमा तक अतिक्रमण करने को तैयार हैं और उड़ीसा ,बिहार,बंगाल के पिछड़े समुदायों की विजातीय अजैन कन्याओं को ,जिन्हें उनके माता-पिता निर्धनता के कारण उनका परिणय करने में समर्थ नहीं है -दलालों के माध्यम से खरीद कर अपनी बहू बनाकर घर ला रहे हैं |ऐसे कई मामले प्रकाश में आये हैं |लेकिन यहाँ यह बात विचारणीय है कि नितांत भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी और विपरीत आहार-चर्या वाली कन्याओं के साथ तालमेल बैठा पाना दुष्करता की सीमा तक कठिन होगा ,साथ ही उन पर विश्वास कर पाना भी सहज नहीं होगा |कहीं वे मौका पाते ही कीमती माल-असबाव के साथ चम्पत न हो जायें,यह चिंता भी बेचैनी का सबब  बनेगी |इसलिए चाबी-ताले में कैद करके याने  सतत निगरानी में रखी जाने वाली इन क्रीत बहुओं की आमद का सिलसिला थमना चाहिए अन्यथा आने वाले समय में वरहिया समाज का स्वरूप भ्रष्ट होकर अपने नग्न विकृत रूप में सामने होगा और हम किंकर्तव्यविमूढ़ होंगे |
                                                        मेरी दृष्टि में इस विकट समस्या का एक ही उपयुक्त समाधान है कि इन बहिष्कृत (छिके हुए )विवाहार्थी युवाओं के निमित्त जैन संस्कारों से संस्कारित कन्याओं को अपनी बहू बनाकर घर लायें ताकि उनके साथ हमारा किसी प्रकार का कोई सांस्कृतिक टकराव न हो और धर्मनिष्ठता का भी सम्यक निर्वहन हो ||विजातीय जैन समुदायों के अलावा जैन संस्थाओं द्वारा संचालित अनाथालयों और आश्रमों में रहने वाली लड़कियाँ भी इस निमित्त सुपात्र हो सकती है |क्योंकि जैन संस्कारों से संस्कारित होने के कारण वे धर्मनिष्ठ होंगी और उनके साथ तालमेल बैठाने में सहजता होगी |भले ही यह सामाजिक विचलन है लेकिन इन परिस्थितियों के मद्देनज़र यह आज की एक बड़ी आवश्यकता और आपद-धर्म बन गया है |ऐसा करने से हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन-मूल्य व समाज की निरंतरता दोनों कायम रहेंगी और साथ ही हमारी सामाजिक अस्मिता अक्षुण्ण रहेगी अन्यथा एक समाज के रूप में हमारी पहचान ही लुप्त हो जाएगी ||

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