गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

पल्लीवाल जैन


 परंपरागत रूप से जैन धर्मावलंबियों की 84 जातियां मानी जाती है जबकि इनकी संख्या 84 से अधिक रही है। कालांतर में इनमें से कुछ जातियों का लोप हो गया और कुछ अन्य प्रमुख जातियों में अंतर्भूत हो गईं।इस प्रकार इनकी संख्या घट गई लेकिन 50 से अधिक जातियां, जो समाज की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेती रहती हैं वर्तमान में हैं।

पल्लीवाल जैन जाति भी इन्हीं 84 जातियों में गिनी जाती है और 84 जातियों का नामोल्लेख करने वाले सभी लेखकों ने पल्लीवाल जाति का उल्लेख किया है। यह जाति वर्तमान में प्रमुख रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एव महाराष्ट्र प्रान्त में मिलती है । जयपुर के पं. बख्तराम साह ने अपने 'बुद्धि विलास' में पल्लीवाल जाति को प्रथम 32 जातियों में गिनाया है। कुछ विद्वान पल्लीवाल जाति का सम्बंध मारवाड़ के पाली नगर से जोड़ते हैं लेकिन पल्लीवाल जैन जाति के इतिहास के विद्वान लेखक डाक्टर अनिल कुमार जैन ने अपना भिन्न मत व्यक्त किया है और पल्लीवाल जाति की उत्पति उत्तर भारत के पाली नगर से न मानकर दक्षिण भारत के पल्ली नगर से मानी है और अपनी इस स्थापना के समर्थन में विद्वान लेखक ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे विश्वनीय और तर्कसंगत लगते हैं। यह सही भी है कि यदि पाली नगर से पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति हुई होती तो वह पालीवाल कहलाती, पल्लीवाल नहीं, क्योकि 'आ' के स्थान पर 'अ' के प्रयोग का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता और 'ली के स्थान पर 'ल्ली' का प्रयोग भी शब्दों के सरलीकरण के विरुद्ध है। लेकिन प्रश्न यह भी है कि पल्लीवाल जाति के अधिकांश परिवार उत्तर भारत में ही क्यों मिलते हैं। उसके सम्बन्ध में भी लेखक ने जो शोध किया है उसके आधार पर पल्लीवाल जाति का सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से दक्षिण भारत से उत्तर भारत की ओर पलायन होना मालूम होता है। फिर भी इस सम्बन्ध में और अधिक शोध करने की आवश्यकता है।

पल्लीवाल जैन जाति मूलतः दिगम्बर जैन जाति ही रही है। अब तक जितनी भी सामग्री प्राप्त हुई है वह इसे दिगम्बर ही सिद्ध करती है । डाक्टर अनिल कुमार जैन ने आचार्य कुन्दकुन्द को पल्लीवाल जाति का सिद्ध करके हमारे इस कथन की पुष्टि ही की है कि पल्लीवाल जैन जाति मूलतः दिगम्बर जैन धर्मानुयायी ही रही है। वर्तमान में भी पल्लीवाल जैन जाति के जितने परिवार है उनमें अधिकांश दिगम्बर जैन धर्मानुयायी ही है। यही स्थिति मन्दिरों की भी रही है।
इस जाति में कितने ही कवि एवं श्रेष्ठी हुये हैं। 12 वीं शताब्दी में धनपाल कवि हुये, जिन्होंने तिलक मंजरी के आधार से तिलक मंजरी कथा-सार नामक ग्रंथ लिखा था। कवि पल्लीवाल दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे।
18 वीं शताब्दी में होने वाले कवि मनरगलाल के नाम से सभी परिचित होंगे। ये कन्नौज के रहने वाले थे तथा इन्होंने कितने ही ग्रंथों की रचना की थी। 19 वीं शताब्दी में होने वाले कविवर दौलतराम जी के भक्ति एवं अध्यात्म से सराबोर भजनों एवं छहढाला का तो सभी गुणी जनों ने स्वाध्याय  किया होगा। ये दोनों पल्लीवाल समाज के रत्न हैं।
श्री नाथूराम जी 'प्रेमी के अनुसार कुछ जातियां तो भौगोलिक कारणों से, (देश, प्रान्त व नगरों के कारण) बनी है। जैसे - ब्राह्मणों की औदीच्य, कान्यकुब्ज, सारस्वत, गौड़ आदि जातियां। उदीचि प्रर्थात् उत्तर दिशा के औदीच्य, कान्यकुब्ज देश के कान्यकुब्ज या कनोजिया, सरस्वती तट के सारस्वत और गौड देश ( बंगाल) के गौड़ । इसी प्रकार श्रीमाल जिनका मूल निवास था, वे श्रीमाली कहलाये, जो ब्राह्मण भी हैं, वैश्य भी है और सुनार भी है। इसी प्रकार खण्डेला के रहने वाले खण्डेलवाल ओसिया के ओसवाल, मेवाड़ के मेवाड़ा, लाट (गुजरात) के लाड आदि । जातियों के सम्बन्ध में एक यह बात ध्यान रखने की है कि जब किसी राजनैतिक, प्राकृतिक अथवा धार्मिक कारणों से कोई समूह अपने स्थान या प्रान्त को छोड़कर दूसरे स्थान पर जा बसता था तब ही ये नाम उन्हें प्राप्त होते थे और नये स्थान के स्थायी निवासी बन जाने पर धीरे-धीरे उनकी उसी नाम से एक जाति बन जाती थी। उदीचि अर्थात उत्तर के ब्राह्मणों का दल जब गुजरात में आकर बसा तब यह स्वाभाविक ही था कि उस दल के लोग अपने जैसे अपने ही दल के लोगों के साथ सामाजिक सम्बन्ध रखें और इसलिए अपनी विशिष्ट पहचान के लिए औदीच्य कहलाने लगे ।कुछ जातियां सामाजिक कारणों से बन गई है, जैसे- दस्सा बीसा, पाँचा आदि भेद और परवारों की चौसखा, दोसखा आदि शाखाएं | कुछ जातियां धार्मिक विचार-भेद से  और कुछ अपने परंपरागत व्यवसाय के आधार पर भी कई जातियां बनी, जैसे-सुनार, लुहार, धीवर, बढ़ई, कुम्हार, चमार आदि। बाद में इन जातियों में भी प्रान्त, स्थान, भाषा आदि के कारण सैकड़ों उपभेद हो गये ।
 कई जातियां प्राचीन काल के गणतन्त्रों या पंचायती राज्यों के अवशेष हैं, जैसे -पंजाब के अरोड़ा (अ) और खत्री (क्सप्रोई), गोरखपुर - आजमगढ़ के मल्ल, आग्रेय गण के अग्रवाल आदि। ये गणतन्त्र एक तरह के पंचायती और स्वशासी राज्य थे। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बताया है कि वैश्य कृषि, पशुपालन और वाणिज्य के अलावा शस्त्र भी धारण करते थे। जब इनकी स्वाधीनता छिन गई और एकतंत्रीय राज्यों ने इनका उन्मूलन कर दिया तब ये शस्त्र छोड़कर केवल वैश्य कर्म ही करने लगे । उनमे से कितने ही पुराने नामों की जातियों में ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। सम्भव है कि अरोड़ा, मल्ल ,खत्री आदि जातियों की तरह अन्य वैश्य जातियो का सम्बन्ध भी किसी न किसी गणतन्त्र से रहा हो । यह भी सम्भव है कि बार-बार स्थान परिवर्तन के कारण और नये स्थानों पर बसने के कारण नये नाम प्रचलित हो गये हों और पुराने गणतन्त्र वाले नाम विस्मृत हो गये हों ।

जैन जातियों की उत्पत्ति के बारे में कुछ लोगों की धारणा है कि अमुक जैनाचार्य ने अमुक नगर के तमाम लोगों को जैन धर्म की दीक्षा दी और  उस नगर के नाम से उस जाति का नामकरण हो गया । उक्त सभी आचार्य पहली शताब्दी के बताये जाते हैं । नाथूराम प्रेमी जी इन बातों पर अविश्वास प्रकट करते हुये लिखते है कि यह ठीक है कि कभी बड़े समूह जैनी बने होंगे। लेकिन  उनमें सभी सामाजिक स्तर और जातियों के लोग होंगे, वे सब एक ग्राम के नाम के आधार पर  किसी एक जाति में कैसे परिणत हो गये होंगे, क्योंकि ऐसी सभी जातियों में जो स्थान विशेष के निवासी होने के कारण बनी है, जैन अजैन सभी लोग रहे होंगे। समय की धारा में जैन अजैन बनते रहे हैं और अजैन जैन ।
  जातियों की उत्पत्ति का समय 👉

कुछ विद्वानों का कहना है कि विभिन्न जातियों की उत्पत्ति राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुई। उनकी मान्यता है कि राजा चन्द्रगुप्त के राज्य काल मे बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था । जिस कारण आजीविका के लिए इधर-उधर भटकने लगे। कहीं वर्ण-संकरता न हो जाये इस भय से लोग अपने-अपने समूहों में ही शादी-विवाह करने लगे। धीरेधीरे ये समूह ही विभिन्न जातियों में परिणत हो गये ।

कुछ विद्वानों का कहना है कि जातियों का उल्लेख नौवीं-दसवीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता है। इसलिए विभिन्न जातियों की उत्पत्ति का समय नौवीं-दसवीं शताब्दी होना चाहिए । दसवीं शताब्दी के श्री भगवज्जिन सेनाचार्य ने भी अपने 'आदिपुराण में वर्ण व्यवस्था की विस्तार से चर्चा की है, लेकिन जातियों का कोई उल्लेख नहीं किया है । इसका कारण यह नहीं कि उनके समय में जातियां नही थी, बल्कि यह है कि उन्होंने चौथे काल की समाज व्यवस्था का ही वर्णन किया है, दसवीं शताब्दी की समाज व्यवस्था का नहीं । और चौथे काल में जातियां नहीं थीं । अन्य जैन कथा-साहित्य में भी सामान्यतः चौथे काल की घटनाओं का ही वर्णन है। लेकिन यहाँ दो बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि एक तो यह कि नौवीं-दसवीं शताब्दी से पूर्व ग्रन्थ-प्रशस्तियों आदि में जातियों के उल्लेख करने का प्रचलन  नहीं था। मूर्तियों पर भी पादलेख  लिखने का प्रचलन नहीं था। दूसरा यह कि नौवीं-दसवीं शताब्दी में ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता जिससे यह कहा जा सके कि विभिन्न वर्ण विभिन्न जातियों मे परिणत हो गये, क्योंकि जब वर्ण व्यवस्था अविछिन्न रूप से चल रही थी तब जातियों के आधार पर नई समाज व्यवस्था स्थापित होने का कुछ ठोस और तात्कालिक कारण तो होना ही चाहिये । अतः जातियों की उत्पत्ति का समय राजा चन्द्रगुप्त के समय से मानना ही उचित है ।
कुछ जातियां मात्र छह-सात सौ वर्ष पुरानी भी है। लेकिन ये जातियां किसी बड़ी जाति के अलग होकर उनका स्वतंत्र अस्तित्व कायम हो गया, जैसे -खरौआ
पल्लीवालों का मारवाड़ स्थित पाली नगर सम्बन्ध जोड़ने के मामले में यह तथ्य भी विचारणीय है कि पाली नाम के नगर मारवाड़ के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी हैं। इस नाम का एक प्राचीन नगर उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के निकट यमुना नदी के किनारे स्थित है। जैनो के प्रसिद्ध तीर्थस्थान कौशाम्बी से पभोसा की ओर जाने पर यह पाली मिलता है। वहाँ पर एक प्राचीन जैन मन्दिर था जो यमुना नदी की बाढ़ में बह गया। अब उसके भग्नावशेष ही बचे हैं। वहाँ एक नया मन्दिर बन गया है, लेकिन प्रतिमाएं अत्यन्त प्राचीन हैं । वहाँ चारों ओर खण्डहर बिखरे पड़े हैं। जिनमें कई जैन मूर्तियाँ  प्राप्त हुई हैं । इन बातों से ऐसा लगता है कि यह पाली (उत्तर प्रदेश) एक प्राचीन स्थान रहा है तथा वहाँ जैन लोग बडी संख्या मे रहते थे ।

पाली नाम का एक अन्य गाँव आगरा जिले की किरावली तहसील के सहाई नामक गाँव के निकट है । इसी नाम का एक अन्य गाँव मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में भी स्थित है। पालीगढ नाम का एक स्थान लखनऊ से 36 किमी दूर खोगघाट के निकट है । पालीताना नामक नगर गुजरात में स्थित है ही। एक पाली नगर उ. प्र. के ललितपुर जिले में भी है ।

इस प्रकार हम देखते है कि पाली नाम के कई नगर विभिन्न क्षेत्र में स्थित है। 'पल्ली' नाम के कुछ प्राचीन नगरों का उल्लेख भी मिलता है। 'दत्त पल्ली' नाम का एक नगर ग्यारहवीं शताब्दी में इटावा अंचल में था। इस नगर पर ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक जैन तथा चौहान वंशी राजाओं का शासन रहा।
'पल्लीवाल जैन इतिहास की भूमिका में भी पल्ली नाम की नगरी का उल्लेख है। इनकी प्राचीनता को निम्न प्रमाणों द्वारा दर्शाया गया है -  पल्ली में अग्नि का उपद्रव वि. सं. 918, चैत्र शुक्ला द्वितीया को हुआ था। ऐसा एक शिलालेख घटियाला ( जोधपुर, मारवाड़) से प्राप्त हुआ है। इसी लेख मे प्रतिहार''स्थानों की सूची में 'पल्लयाँ' का उल्लेख है । एक लेख वि. सं. 1215 का है जिसमें भी पल्ली शब्द का प्रयोग हुआ है। इन सभी लेखों में पल्ली नगर का उल्लेख किया गया है, लेकिन इस भूमिका के लेखक ने इसे मारवाड़ में स्थित पाली नगर ही मान लिया है ।

इसी भूमिका में लिखा है कि जैसलमेर स्थित किले के ग्रन्थ भण्डार मे रखी हुई 'पचाशक वृत्ति' नामक ताड़पत्रीय पुस्तक के अन्त मे दो पद्य है, जिनमें लिखा है कि "वि.सं. 1207 में 'पल्ली-भंग' के समय उस अधूरी पुस्तक को ग्रहण किया था, बाद में श्री जिनदत्त सूरि जी के शिष्य स्थिर चन्द्रगणी ने अपने कर्म क्षयार्थ अजयमेरु दुर्ग में उसके शेष भाग को लिखा था।" इस लेख में भी पल्ली शब्द ही प्रयक्त हुआ है जिसे पाली मान लिया गया है।
पल्लीवालों के चारण-भाट हिन्डौन निवासी श्री कजोड़ीलाल राय थे | उनसे प्राप्त एक हस्तलिखित 'प्रार्थना-पुस्तक' में भी पल्लीपुर नगर का वर्णन मिलता है । यह पुस्तक लगभग 180 वर्ष पूर्व लिखी गई थी। इसमें एक स्थान पर लिखा है कि पल्लीपुर गुजरात खण्ड के मध्य में स्थित है। सम्भवतः यह पल्लीपुर पूर्वोक्त पल्लीपुर ही है ।
इस प्रकार हम देखते है कि पाली नाम के कई ग्राम व नगर विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं , साथ ही पल्ली नाम के कई प्राचीन नगरों का भी उल्लेख मिलता है। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो पल्लीवाल जाति का सम्बन्ध किसी पाली से होना सिद्ध करता हो। कुछ लेखों से पता चलता है कि मारवाड़ के पाली नगर में पल्लकीय गच्छ के आचार्यों ने मूर्ति प्रतिष्ठा कराई। लेकिन पल्लकीय गच्छ का पाली से सम्बन्ध होने पर भी पल्लीवालों का पाली से कोई संबंध जुड़ता नहीं दिखाई पड़ता।
दक्षिण की तेलुगू तथा तमिल भाषा मे 'पल्ली' शब्द का अर्थ 'छोटे-गाँव' से होता है। आज भी छोटे-छोटे गाँवों के नाम के पीछे पल्ली शब्द लगाने का प्रचलन है। प्राचीन काल में एक पल्ली ( छोटे गाँव) में एक ही वर्ण के लोग रहते थे। कई-कई पल्लियों के लोग एक ही वर्ग के तथा एक ही धर्म को मानने वाले हुआ करते थे। अतः उन सभी पल्लियों के सब लोग, जो जैन धर्मानुयायी थे तथा उनका वर्ण वैश्य था, कालान्तर में पल्लीवाले कहे जाने लगे और वे ही बाद मे पल्लीवाल जाति के नाम से प्रसिद्ध हो गये। अतः पल्लीवालों की उत्पत्ति दक्षिण भारत से माननी चाहिए |

आचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जात्युत्पन्न थे ।उनका जन्म वि.सं.49(वीर निर्वाण संवत् 519) में दक्षिण भारत के तमिल प्रदेश के कुरुमराई नामक ग्राम में हुआ था । आचार्य श्री ने बहुत वर्षों तक तमिल प्रदेश में ही भ्रमण किया तथा धर्म प्रभावना की। उनकी साधना स्थली भी तमिल प्रदेश के जंगल ही थे । इससे भी यही सिद्ध होता है कि पल्लीवालों का सम्बन्ध दक्षिण के तमिल प्रदेश से रहा है। अतः पल्लीवाल जाति का उद्गम स्थान तमिल प्रदेश ही रहा है।
पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मत है कि इसकी उत्पत्ति ग्यारहवीं - बारहवीं शताब्दी में हुई। लेकिन यह मानना गलत है। पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति तो बहुत पहले ही हो चुकी थी। इस जाति में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों को मानने वाले लोग है। तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी के कई लेख तथा मूर्ति लेख उपलब्ध है। इनसे पता चलता है कि उस समय इस जाति के कुछ लोग दिगम्बर आम्नाय को मानने वाले थे तथा कुछ लोग श्वेताम्बर आम्नाय को मानते थे यानि  तेरहवीं शताब्दी के अन्त में इस जाति में जैन धर्म की दोनों आम्नायों को मानने वाले लोग थे । किसी समुदाय का जाति में परिणत होना उस समुदाय के समस्त लोगों के खान-पान, रीति-रिवाज, रहन-सहन और धार्मिक  समानता पर निर्भर करता है । यदि दो वर्ग अलग-अलग धर्मों को मानने वाले हों तो उनका एक ही जाति के रूप में उभरकर आना असम्भव है। यदि पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति बारहवीं शताब्दी में माने तब अलग-अलग आम्नाय को मानने वाले लोग एक ही जाति में कैसे परिणत हो सकते हैं ? जबकि दो अलग-अलग आम्नायों को मानने के कारण दो अलग-अलग जातियों का निर्माण होना चाहिए था। अतः पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में नहीं बल्कि उससे बहुत पहले हो गई थी ।
आचार्य कुन्दकुन्द पल्लीवाल जाति से थे । नागोर के भट्टारकीय शास्त्र भंडार से प्राप्त आचार्य पट्टावली ,जो चामुंडराय कृत 'चारित्र-सार' नामक में ग्रंथ में संलग्नक के रूप में जुड़ी है -में आचार्य कुंदकुंद जिनके अपरनाम -पद्मनंदि,वक्रग्रीव,गृद्धपिच्छक, और एलाचार्य है,को पल्लीवाल जात्युत्पन्न बताया है।इनका जन्म वि.सं. 49 में हुआ था। अतः पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति का समय आचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व का ही होना चाहिए । 'पल्ली' ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की तमिल भाषा का बहु-प्रचलित शब्द भी है। पल्लीवालों की उत्पत्ति का समय भी विक्रम की पहली सदी ( ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दी) मानना चाहिए ।
पल्लीवाल जाति का विकास 👉
बहुत समय तक पल्लीवाल दक्षिण के तमिल प्रदेश में ही रहते रहे । कालान्तर में ये उत्तर भारत की ओर पलायन कर गये। विक्रम की दसवीं शताब्दी तक ये लोग कन्नौज तथा इटावा अंचल में फैल गये तथा अन्तिम रूप से यहीं पर रहने लगे। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक ये पल्लीवाल बिना किसी कठिनाई के यहाँ आनन्दपूर्वक रहते रहे ।

'विक्रमी 1251 (सन् 1194) में मुहम्मद गौरी जब बनारस की ओर जा रहा था, तब उससे मुठभेड़ के समय इटावा में धनपत शाह के दो पुत्रों  सोहिल व गुंझा ने पल्लीपुर में वास किया जो गुजरात खण्ड के मध्य में है ।' 'प्रार्थना पुस्तक का यह वक्तव्य उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में लिखा गया । धनपतशाह का समय विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का मध्य है। उसने जिस घटना का वर्णन किया है वह यथा सम्भव चन्द्रवाड़ (फिरोजाबाद के निकट)में मुहम्मद गौरी के युद्ध के समय की ही है। इसी समय इटावा अंचल में स्थित विभिन्न जैन जातियों के लोग इस क्षेत्र को छोड़ने के लिये बाध्य हो गये थे और उन्होंने हस्तिनापुर के निकट एकत्र होकर अन्यत्र जाने के लिये विचार-विमर्श किया। तत्पश्चात कुछ पल्लीवालों ने गुजरात की ओर प्रस्थान किया और वे वही बस गये । जैसा कि विभिन्न मूर्तिलेखों से पता चलता है, वि चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक ये पल्लीवाल पूरे गुजरात मे फैल गये । पाटण, काठियावाड, मेहसाणा, भरुच तथा सूरत इन सभी स्थानों पर इस जाति के लोग रहते थे ।
कुछ मूर्ति लेखों मे गुर्जर पल्लीवाल ( शक सं. 1428), पद्मावती पल्लीवाल (शक सं. 1001 ) तथा उज्जैनी पल्लीवाल (शक सं. 1626) का उल्लेख आता है। ये सभी मूर्तियाँ नागपुर के मन्दिरों में मौजूद है। इन लेखों से सिद्ध होता है कि पल्लीवाल जाति के कुछ लोगों ने विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी के अन्त में गुजरात प्रदेश छोड़ दिया और उज्जयनी नगरी की ओर चले गये तथा वहीं पर रहने लगे।
ऐसा ज्ञात हुआ है कि आज भी रतलाम में, जो कि उज्जैन के निकट ही है, पल्लीवाल जाति के कुछ लोग रहते है, लेकिन ये सभी हिन्दू धर्म को मानते हैं। अब इनका पल्लीवाल जाति की मूलधारा से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। उज्जैन के शेष पल्लीवाल
पद्मावती नगर होते हुये विदर्भ क्षेत्र की ओर चले गये। आज भी वहाँ पल्लीवाल जैन लोग रहते है। विदर्भ क्षेत्र के पल्लीवालों का मानना है कि इस क्षेत्र में बसने वाले पल्लीवाल दो रास्तों से आये हैं - एक वर्धा होते हुये तथा दूसरे छिन्दवाडा की ओर से । बाद में ये सभी पल्लीवाल विदर्भ क्षेत्र के नागपुर तथा वर्धा आदि स्थानों में बस गये। पिछले लगभग 200-250 वर्ष से ये लोग यहाँ पर ही बसे हुए हैं। ये भी पल्लीवाल जाति की मुख्य धारा से अलग हो गये हैं।
गुजरात प्रदेश के काठियावाड क्षेत्र में रहने वाले पल्लीवाल कई भागों में बँट गये - कन्नौज क्षेत्र के पल्लीवाल, मुरैना क्षेत्र के पल्लीवाल, जगरौठी तथा आगरा क्षेत्र के पल्लीवाल और नागपुर क्षेत्र के पल्लीवाल । बहुत समय तक तो यही माना जाता रहा कि ये चारों घटक अलग-अलग जातियाँ है, लेकिन ऐसा मानना सही नहीं है। पल्लीवाल जाति के लोग विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग समूहों में बँट गये, मूलतः ये चारों एक ही जाति के अंग हैं। इनके गोत्रों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से गोत्र चारों घटकों मे मिलते हैं। निश्चित ही ये गोत्र जाति के विघटन के पूर्व के है । जो गोत्र आपस में नही मिलते, वे या तो इन घटकों के विघटन के बाद के है, या उन गोत्रो के वंशज अब अन्य घटकों में नहीं हैं ।जौरा(मुरैना) से  6 किमी.दूर परसौटा नामक ग्राम में पल्लीवालों का एक प्राचीन दि० जैन चैत्यालय है जिसमे प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान है। परसौटा ग्राम में ही पल्लीवाल समाज के अधिष्ठाता की गद्दी है । इसके अन्तिम अधिष्ठाता श्री 108 भट्टारक करन सागर जी महाराज थे जिनका कुछ वर्ष पूर्व देहांत हो गया । घर मे कुछ भी शुभ कार्य होने पर पल्लीवाल लोग यहाँ दान देने और चढ़ावा चढ़ाने जाते है ।
आज हम पल्लीवाल जाति को जिस रूप में देखते है उसमें पल्लीवालों के विभिन्न घटकों के साथ-साथ सिकन्दरा (आगरा), पालम (दिल्ली के निकट ) तथा अलवर के जैसवाल तथा सैलवाल जाति के लाग भी सम्मिलित है। इन जातियों ने लगभग 150 वर्ष पूर्व से ही पल्लीवालों में विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे । अब ये पल्लीवाल जाति के ही अभिन्न अंग बन गये है। इन जातियों ने भी स्वयं को पल्लीवाल जाति में विलीन कर लिया है और अपना अलग अस्तित्व समाप्त कर लिया है। नागपुर क्षेत्र के पल्लीवालों से बाकी पल्लीवालों का कोई सम्बन्ध अब नही रहा है, इसका मुख्य कारण दूरी है। मातृभाषा तथा रहन-सहन में भी बहुत अन्तर है।

 पल्लीवाल जाति के गोत्र

अधिकतर जातियो मे विभिन्न गोत्र पाये जाते है । जिस प्रकार से जातियों का नामकरण वंशों, प्रान्तो, नगरों तथा व्यवसायों आदि के आधार पर माना जाता है उसी प्रकार से गोत्रों का।
(1)जगरोठी, अलवर और आगरा क्षेत्र के पल्लीवाल,
(2) कन्नौज- अलीगढ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवाल, (3) मुरैना तया ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवाल, (4) नागपुर (विदर्भ) क्षेत्र के पल्लीवाल, (5) सिकन्दरा तथा पालम के सैलवाल तथा (6) पालम तथा अलवर के जैसवाल | इनमे से सैलवाल तथा जैसवाल प्रारम्भ में अलग जातियाँ थीं। लेकिन कालान्तर मे इनके परिवारो की संख्या कम हो जाने से इनको शादी-विवाहादि में कठिनाई का अनुभव हुआ। अतः इस जाति के लोगों ने अन्य जाति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का निश्चय किया। चूंकि पल्लीवाल जाति के धार्मिक तथा सामाजिक आचार-विचार जैसवाल तथा सैलवाल जातियों से मिलते थे तथा पल्लीवाल जाति भी छोटी जाति होने के कारण अपना क्षेत्र बढ़ाना चाहती थी, अतः ये जातियाँ आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व पल्लीवाल जाति मे पूर्णतः विलीन हो गई ।

प्रारम्भ के चार घटकों के गोत्रों के सम्बन्ध मे एक बात मुख्य है कि इन सब घटकों के कुछ गोत्र एक दूसरे से नहीं मिलते हैं। ऐसा लगता है कि इन गोत्रों की स्थापना पल्लीवाल जाति की उत्पत्ति के बहुत बाद मे हुई है। भिन्न-भिन्न घटकों के गोत्र निम्न प्रकार से है-

1. जगरौठी, अलवर तथा आगरा क्षेत्र के पल्लीवालों के गोत्र-

(1) सुगे सुरिया, (2) नग सुरिया, (3) नागे सुरिया, (4) सलावदिया, (5) डगिया मसद, ( 6 ) डगिया सारग, (7) डगिया रसक, (8) जनूथरिया - ईट की थाप (9) जथरियाकैम की थाप, ( 10 ) राजौरिया, (11) चौर बवार, (12) बहतरिया, (13) भडकौलिया, (14) बरवासिया, (15) बारीलिया, (16) बडेरिया, (17) अठवरसिया, (18) नौलाठिया,(19) पावटिया, ( 20 ) लेदोरिया, (21) विदोराबकस, ( 22 ) धाती, (23) कोटिया, (24) नौघी, (25) लोहकरेरिया, (26) मंगरवासिया, (27) तिलवासिया, (28) चांदपुरिया, (29) दिवरियां, (30) व्यानिया, (31) वेद. (32) काश्मीरिया, (33) निगोहिया, (34) खैर, (35) चकिया, ( 36 ) विलनमासिया, ( 37 ) डडूरिया, (38) नौहराज, (39) गुदईलिया, (40) भावरिया (41) कुरसौलिया, ( 42 ) खोहवाल (43) पचीरिया, (44) वारीवाल, ( 45 ) गुदिया, (46) निहानिया, (47) लवट किया, (48) दादुरिया, (49) गिदौरिया, (50) भोवार, (51) माईमूडा, ( 52 ) गुवालियरे |

2.कन्नौज, अलीगढ़ तथा फिरोजाबाद क्षेत्र के पल्लीवालों के गौत्र

(1) अकबरपुरिया, (2) अगरैय्या (3) औरंगाबादी, (4) कठमत्या. ( 5 ) कठोरिया (6) करोडिया, (7) करोनिया ( 8 ) काश्मीरिया, ( 9 ) कोनेवाल, (10) गिदौरिया, (11) चीनिया (12) चौधरिया, (13) जिवरिया, (14) टेनगुरिया, (15) ठाकुरिया, (16) डरिया, (17) दरवाजेवाल, ( 18 ) धनकाडिया ( 19 ) नगेसुरिया, (20) नारगावादी, (21) पटपस्या (22) पहाड्डया, (23 फिरोजाबादी, (24) भजौरिया, ( 25 ) मवाडिया, ( 26 ) बजौरिया, ( 27 ) वरवासिया, (28) बाकेवाल (29) वारीलखु, (30) बदिया, (31) मकटिया, (32) सैगरवासिया, ( 33 ) हतकतिया ।

मुरैना तथा ग्वालियर क्षेत्र के पल्लीवालों के गोत्र-

( 1 ) कायर ( 2 काश्मीरिया (3) खेरोनीबाल, (4) खोहवाल, ( 5 ) खैर, (6) गुदिया, ( 7 ) ग्वालियरे, (8) चौमुण्डा ( चौरबम्बार), (9) चौथा, ( 10 ) डडूरिया, ( 11 ) दमेजरे,
(12) दिवस्या, (13) धनवासी (धाती), (14) घुनेरिया (15) नगेसुरया, (16) निहानिया, (17) पचोरिया, (18) पाडे, (19) पावटिया (20) महेला, (22) रायसेनिया (23) लखट किया, (24) लोहकरेरिया, (25) बडेरिया, (26) बरवासिया, ( 27 ) वारीवाल, (28) वैद- भगोरिया, ( 29 ) ब्यानिया, ( 30 ) बजारे, (31) समल, (32) सलावदिया, ( 33 ) सारग डग्या, (34) साले, (35) सैगरवासिया।

4. नागपुर ( विदर्भ) क्षेत्र के पल्लीवालों के गोत्र

(1) वाईवाल, (2) नामक (3) बिजाबरत, ( 4 ) धराईवाल, (5) डरेपूर (6) पानीवाल, (7) थासु, (8) फरीवाल, (9) भिमानी, (10) छामरनीवाल (11) बीदर, नन्दनीवाल |

5. सैसवालों के गौत्र

( 1 ) मालेश्वरी (मालेसरी), (2) आमेश्वरी (3) अम्बिया, ( 4 ) राजेश्वरी आदि ।

जैसवालों के गोत्र-

(1) वेद-वैराष्टक, (2) अगरस, ( 3 ) राजनायक, (4) श्याम पाडिया प्रादि ।

इन गोत्रों का विश्लेषण करने पर निम्न निष्कर्ष निकालते है-

(1) बहुत से गोत्रों का नामकरण विभिन्न ग्रामों अथवा स्थानों के नाम पर हुआ । जैसे- सलाबदिया, सैगरवासिया, काश्मीरिया, गुवालियर (ग्वालियरे), अकवरपुरिया, अगरैय्या औरंगाबादी, फिरोजाबादी, बोहवान्न आदि ।

(2) ऐसा लगता है कि कुछ वर्गों के लोग पहले एक ही गोत्र के अन्तर्गत आते थे। कालान्तर मे जब उस गोत्र के लोगों की
संख्या में वृद्धि हुई तथा अलग-अलग स्थानों पर चले गये, तब नये गोत्र बन गये | जैसे नगे सुरिया, नागे सुरिया तथा सूगे सुरिया।