सोमवार, 30 जनवरी 2023

विवाह से जुड़ी कुछ चिंताएं


 विवाह को लेकर आज जैन समाज में और विशेषकर वरहिया जैन समाज में जो स्थिति बन रही है वह सचमुच डरावनी है। क्योंकि बड़ी संख्या में विवाह योग्य युवक और युवती जिनकी उम्र तीस से पैंतीस वर्ष या अधिक है, अविवाहित हैं। इनमें ज्यादातर वे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं या वे हैं जिनके पास आकर्षक जाॅब नहीं है या फिर उच्च शिक्षित वे लोग हैं जिन्हें अच्छे पैकेज मिलते हैं और जो महानगरों में कार्यरत हैं। शादी के लिए ग्रामीण क्षेत्र का नाम सुनकर धुर ग्रामीण परिवेश में रहने वाली लड़की यदि नाक-भौंह सिकोड़ने लगे तो अचरज न करें। यह टीवी और इंटरनेट की चकाचौंध और उससे उपजी महत्वाकांक्षा का नतीजा है।लिहाजा मज़बूरन कई अभिभावकों को बिहार, बंगाल से मैनेज करके यानी खरीदफरोख्त करके बहुएं लाने की राह चुननी पड़ी। यह स्थिति कतई श्रेयस्कर नहीं कही जा सकती है।अब अगर कामकाजी लोगों की बात करें तो  वे पहले तो खुद को आर्थिक तौर पर मजबूत करना चाहते हैं  और जिंदगी में इस्टेब्लिस होना चाहते हैं फिर कहीं शादी के बारे में सोचना चाहते हैं।  महानगरों में जाॅब करने वाले को तो रिलेशनशिप का ऑप्शन भी सुलभ है और शायद इसीलिए वे या उनमें से ज्यादातर लोग विवाह की उम्र में भी विवाह को लेकर यों बेफिक्र हैं। अलबत्ता बच्चों के विवाह की चिंता उनके मां बाप को सताती रहती है । लेकिन कभी योग्य जीवन साथी न मिलने का रोना रहता है तो कभी आर्थिक असुरक्षा का बहाना बनाया जाता है और कभी दहेज भी एक फैक्टर होता है।इस स्थिति के लिए सिर्फ उनके माता पिता को दोषी ठहराकर पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं क्योंकि यह उनकी शुरुआती परवरिश का नहीं बल्कि पश्चिमी जीवन शैली का साइड इफेक्ट है।
                          आज के दौर में बच्चों को उच्च शिक्षा और महानगरों से दूर नहीं रखा जा सकता है। अपने सामाजिक संस्कारों और पश्चिमी जीवन मूल्यों के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए यहीं पर परिजनों की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन काम-धंधे की व्यस्तता या अपने बच्चों पर अतिविश्वास के कारण परिवार जनों से यहीं चूक हो जाती है और वे अपनी इस अहम भूमिका के निर्वहन में जाने अनजाने में गलती कर बैठते हैं। इसलिए जरूरी है कि अपने बच्चों से संवाद की कड़ी न टूटने दें और भावनात्मक रूप से उनका संबल बने रहें । क्योंकि जब उनके जीवन में भावनात्मक रिक्तता पैदा होगी तो वे उस खालीपन को किसी और तरह से भरने की कोशिश करेंगे। आज कामकाजी युवक -युवतियों के वैवाहिक और पारिवारिक जीवन में जो समस्याएं आ रही हैं उनके मूल में अक्सर उनके विवाह पूर्व के उन्मुक्त जीवन की स्थितियां ही जिम्मेदार रहती हैं। इसलिए बेहद सतर्कता से इन स्थितियों को हैंडल करने की जरूरत है। ध्यान रहे कि प्रगतिशीलता के नाम पर उच्छृंखलता और सामाजिक रीति रिवाजों की अनदेखी की भारी कीमत हमें चुकानी पड़ेगी। मैं यहां यह बात स्पष्ट करता चलूं कि  किसी प्रकार की रूढ़िवादिता का पोषण करना मेरा मंतव्य नहीं है लेकिन सारे रिवाज निरर्थक और कालबाह्य नहीं होते, यह बात समझना बेहद जरूरी है।देखने में आता है कि मां-बाप की प्रतिष्ठा और सामाजिक स्थिति की परवाह न कर होने वाली लव मैरिज में जब हीनतर सामाजिक स्थिति वाले कमाऊ  युवक या युवती वैवाहिक बंधन में बंधते हैं तो ऐसे रिश्ते जीवन भर नासूर की तरह चुभते रहते हैं और जिसका कोई प्रायश्चित नहीं होता।घर वालों को जीवन साथी के चुनाव में बच्चों (विवाहार्थी) की इच्छा को अधिमान्यता तो देनी चाहिए लेकिन खुदमुख्तारी नहीं। वर्ना स्थिति हाथ से निकल जाती है।
             कोई व्यक्ति कब विवाह करता है यह उसकी मर्जी है लेकिन उसे कब विवाह करना चाहिए इस बारे में यह जानना उपयोगी और दिलचस्प होगा कि 24-25 वर्ष की उम्र में फर्टिलिटी रेट सबसे ज्यादा होता है और स्पर्म क्वालिटी सबसे अच्छी होती है।यह रिसर्च बताती है। इसलिए 35-36 या उससे अधिक उम्र में शादी होने पर होने वाले बच्चों के जीन की गुणवत्ता तुलनात्मक रूप से बेहतर नहीं होती और उनके मानसिक रूप से किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होने की संभावना काफी ज्यादा रहती है। इसलिए सही समय पर ही सही फैसले लेने चाहिए।
                      हम सबको इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। सामाजिक स्तर पर भी इस दिशा में सकारात्मक पहल किया जाना जरूरी है। सिर्फ एक -दूसरे पर दोष मढ़ने से यह समस्या हल होने वाली नहीं है। किसी का परिहास करने या उसे नीचा दिखाने के बजाय उसका सही मार्गदर्शन कीजिए।यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।


शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

वर्ष 1914 की जैन जनगणना और वरहिया जैन समाज


 अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन महासभा द्वारा ई.1914 में भारत की समस्त दिगंबर जैन जातियों की गणना कराई गई थी।इस जातीय जनगणना से दिगंबर जैन जातियों की जनसंख्या का पहली बार आधिकारिक रूप से एक स्थूल आकलन हो सका। यह डायरेक्टरी वेंकटेश्वर मुद्रणालय मुंबई से प्रकाशित हुई थी। इसमें सभी दिगंबर जैन जातियों की जनगणना के अलावा विभिन्न समाजों के प्रमुख लोगों की भी एक सूची तैयार की गई थी।इस उलेख्य सूची में वरहिया(वरैया) जैन समुदाय के 59 प्रमुख परिवारों को शामिल किया गया है। यह हमारे अतीत का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वरहिया जैन समुदाय की तत्समय जनसंख्या का ग्रामवार विवरण अकारादि क्रम से यहां प्रस्तुत है। इसके अनुसार कुल जनसंख्या 1512 है।
1-अमरोल-23
2-आमोल-5
3-अलवर-20
4-अलापुर-20
5-अमोला-103
6-आरोन-27
7-इटावली-15
8-उज्जैन-9
9-करई -23
10-करहिया-311
11-कानीबहेरी-9
12-कुलैथ-23
13-गुलगांव(सलारतपुरा)-4
14-गोपालपुरा-8
15-घरसोदी-5
16-घाटीगांव-6
17-चंदपुरा-16
18-चिंदौनी-1
19-चीनौर-43
20-चुरैलखेरा-9
21-चैतनगर(चैतग्राम)-13
22-छड़ेर-8
23-छड़ेरा-8
24-छीमक-10
25-जिगसोली-5
26-जौरा-57
27-जौरासी-10
28-टिकटौली-36
29-दीमानगंज-8
30-धमकन-7
31-धौंआ-47
32-धौलागढ़-19
33-नरवर-53
34-नरेला-7
35-नवगांव-3
36-पनिहार-5
37-पार-10
38-बड़नगर(मालवा)-1
39-बनवार-34
40-बैरसिया-8
41-भौंती-2
42-भोपाल-10
43-मगरोनी-115
44-मुरैना-5
45-मोहना-39
46-मोहलिया-4
47-रायपुर(गिर्द)-11
48-रिठौरा-23
49-रेंहट-44
50-लीटिया -10
51-वरकेगांव-23
52-बिलोखो-2
53-बिहारिया-3
54-सांतऊ-11
55-सतनवाड़ा-18
56-सभराई-8
57-सिमरिया-21
58-सुमावली-85
59-सिरसा-6
60-शिवपुरी-30
61-हथरया-13

         वरहिया जैन समुदाय के गौरवास्पद इतिहास से परिचय कराने के उद्देश्य से उस समय के प्रमुख परिवारों का विवरण अकारादि क्रम से यहां आगे दिया जा रहा है।हर प्रविष्टि में पहले निवास स्थान का उल्लेख है इसके पश्चात परिवार के मुख्य-मुख्य लोगों के नाम और इसके बाद कारोबार का उल्लेख है -

1-अमरोल(गिर्द)-श्री राधेलाल,फुंदीलाल जी-गल्ले का व्यापार
2-आमोल(नरवर)-श्री चुन्नीलाल, मोतीलाल जी-बजाजी
3-अलापुर(तवरघार)-श्री सेवालाल,ग्यासीराम जी -दुकान कठारखाना
4-आमोल(नरवर)-श्री मन्नूलाल, तुलाराम जी -साहूकारी
5-आमोल(नरवर)-श्री ताराचंद, खूबचंद जी-साहूकारी
6-आरोन(गिर्द)-श्री दुरगी,खूबी-साहूकारी
7-इटावली(ग्वा.रिया.)-हीरावन दे-बंजी
8-उज्जैन-श्री जुहारमल, पूनमचंद जी -परचून की दुकान
9-करई(गिर्द)-श्री रामलाल, गंगाराम जी -साहूकारी
10-करहिया(गिर्द)-श्री लेखराज,जगराम जी -साहूकारी
11-करहिया-श्री दीवानमल वृजलाल जी-साहूकारी
12-करहिया-श्री मिहरचंद, रामलाल जी -साहूकारी
13-कानीबहेरी(नरवर)-श्री दरयाब, रामलाल जी -बंजी
14-कुलैथ(ग्वा.रिया.)-कुल्लेमल पुत्र श्रीधर्मदास जी-बंजी
15-गुलगांव [सलामतपुर](भोपाल रिया.)-सेठ सुखलाल, रतनचंद जी -किराना
16-घरसोदी(गिर्द)-श्री काशीराम, परमसुख जी -बंजी
17-घाटीगांव(गिर्द)-श्री पन्नू,मानू-बंजी करना
18-चंदपुरा(ग्वा.रिया.)-श्री दौलती,ज्योति प्रसाद -बंजी
19-चिंदौनी(तवरघार)-श्री दुलीचंद खूबचंद जी -खेतीबाड़ी
20-चीनौर(गिर्द)-श्री धाराजीत, नंदलाल जी -साहूकारी
21-चुरैलखेरा(नरवर)-श्री दुल्ली, रामलाल जी -घी और गल्ले का व्यापार
22-चैतनगर(ग्वा.)-श्री भजनलाल, प्यारेलाल जी -साहूकारी
23-छड़ेर(तवरघार)-श्री शोभाराम,मनसाराम जी -दुकान कठारखाना
24-छड़ेरा(गिर्द)-श्री हरगोविंद, बालकिशन जी -बंजी
25-छीमक(गिर्द)-श्री सोनपाल, प्यारेलाल जी -साहूकारी
26-जिगसोली(ग्वा.रिया.)-श्री मूलचंद, राजाराम जी -बंजी
27-जौरा(तवरघार)-श्री मोहनलाल, महासुख जी-दुकानदारी
28-जौरासी(ग्वा.रिया.)-श्री रामलाल, पातीराम जी -बंजी
29-टिकटौली(ग्वा.रिया.)-श्री छीतरया, अमरजीत जी -बंजी, खेतीबाड़ी
30-धमकन(तवरघार)-श्री ललईं, मूलचंद जी -दुकानदारी
31-धौंआ(गिर्द)-श्री मोतीराम,रामजीमल जी -साहूकारी
32-धौलागढ़(नरवर)-श्री रतनलाल, बिहारीलाल जी -आढ़त,साहूकारी
33-नरवर(ग्वा.रिया.)-सेठ श्रीचंद पुत्र श्री इच्छाराम जी -साहूकारी
34-नरवर-सेठ चतुर्भुज पुत्र श्री किशुनचंद जी -साहूकारी
35-नरेला(तवरघार)-श्री गिरधारी लाल,गोलीराम जी -दुकान कठारखाना
36-नवगांव(गिर्द)-श्री कड़ोरेलाल,विनतीलाल जी -गल्ले का व्यापार
37-पार(गिर्द)-श्री उदैनंद,हरप्रसाद जी -साहूकारी
38-बनवार(गिर्द)-श्री बापूराम, रामलाल जी-बंजी
39-बनवार-श्री हरलाल, भोगीराम जी -साहूकारी
40-बैरसिया(भोपाल)-श्री धन्नालाल जी -हलवाईगीरी
41-मगरौनी(नरवर)-श्री मोतीलाल, पन्नालाल जी -साहूकारी
42-मुरैना(ग्वा.रिया.)-पं.गोपालदास जी -आढ़त
43-मोहना(गिर्द)-श्री पन्नूलाल,भूरासिंह जी-साहूकारी, गल्ले का व्यापार
44-रायपुर(गिर्द)-श्री चिरोंजी लाल, धनपाल जी-पटवारी
45-रिठौरा(तवरघार)-सेठ पन्नालाल, हीरालाल जी -साहूकारी
46-रेंहट(गिर्द)-श्री प्रतापचंद,कड़ोरेमल जी -साहूकारी
47-लीटिया(गिर्द)-श्री पातीराम,बहोरनलाल जी -साहूकारी, खेतीबाड़ी
48-वरकेगांव-(गिर्द)-श्री माणिकचंद, हंसराज जी -साहूकारी,बजाजी
49-बिलोखो(नरवर)-श्री गुलाबचंद, श्रीलाल जी -बंजी
50-विहारिया(उज्जैन)-श्री चुन्नीलाल जी -परचून की दुकान
51-सांतऊ[शांतक](गिर्द)-श्री दुर्गा प्रसाद, मोतीलाल जी -साहूकारी, खेतीबाड़ी
52-सतनवाड़ा(नरवर)-श्री गुलाबचंद, पन्नूलाल जी-साहूकारी,घी का व्यापार
53-सभराई(गिर्द)-श्री फोदलिया पुत्र श्री जानकीराम जी -साहूकारी,घी का व्यापार
54-सिमरिया(गिर्द)-श्री अमरचंद, नेकराम जी -गल्ले का व्यापार
55-सुमावली(ग्वा.रियासत)-श्री हरगोविंद, प्यारेलाल जी -साहूकारी
56-सुमावली-श्री फैलीराम,गुलजारी लाल जी -साहूकारी
57-सिरसा(गिर्द)-श्री झींगरीमल, कालूलाल जी -पंसारी
58-शिवपुरी(नरवर)-श्री गिरधारी भाई, पातीराम जी -हलवाईगीरी
59-हथरया(ग्वालियर रियासत)-श्री भागचंद, धनीराम जी -बंजी।
[यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि इस जनगणना में आगरा अंचल के शमसाबाद ,बड़ा नगला,वदेकेवास,डौकी,कुर्राचित्तरपुर,गढ़ी महासिंह आदि स्थानों में वरहिया जैन समाज के निवास का कोई उल्लेख नहीं है। जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि या तो ई.1914 में कोई वरहिया जैन इस क्षेत्र में निवास नहीं करता था या फिर जनगणना कार्य करने वाले लोगों से कोई भूल हुई है।जबकि जनगणना में कुर्राचित्तर पुर में एक जैसवाल परिवार के निवास का उल्लेख है यानी वे लोग इस क्षेत्र से परिचित थे। शमसाबाद में रहने वाले सिंघई परिवार तो बरौआ (गिर्द) से जाकर वहां बसे हैं। अन्य मामलों में भी शायद ऐसा ही रहा हो। सांतऊ निवासी श्रीमान दुर्गा प्रसाद जी (पहाड़िया) जिनका उल्लेख सूची में प्रविष्टि क्रमांक 51में है, लेखक के प्रपितामह हैं,जो ई.1928 के आसपास भिंड जिले के लहार कस्बे में आकर रहने लगे थे]




रविवार, 15 जनवरी 2023

लंबेचू जैन


  परंपरा से दिगंबर जैन समाज में 84 जातियां मानी गईं हैं।लंबेचू जाति इन्हीं में से एक है।ये यदुवंशी क्षत्रिय हैं। जो लंबकंचुक यानी तारों से गुंथा हुआ लंबा चोगा या अंगरखा जो एक प्रकार का कवच था,युद्ध में धारण करने के कारण लंबकंचुक नाम से विख्यात हुए हैं।लंबेचू शब्द लंबकंचुक का अपभ्रंश है।लंबेचू कृष्णवंशी हैं जिनका गौरवशाली अतीत है।इसी वंश में राजा लोमकर्ण या लम्बकर्ण हुए हैं जो लंबकांचन( गुजरात और राजस्थान के संधिप्रदेश में)देश के अधिपति थे। उनके वंशज होने के कारण भी यह वंश लंबेचू या लम्बकञ्चुक नाम से प्रसिद्ध हुआ।मतांतर से लंबेचू शब्द को लंबेचुहान से व्युत्पन्न मानकर चौहान क्षत्रियों से उनकी निकटता स्थापित की गई है। चौहानों और लंबेचुओ के निवास स्थान और गोत्रादि में किंचित साम्य से यह मत उचित जान पड़ता है। चौहान क्षत्रिय भी यदुवंशी हैं।इस प्रकार लंबेचू जैन क्षत्रिय हैं,यह बात असंदिग्ध रूप से स्थापित है।यह जाति काफी प्राचीन है। संवत् 142 में भद्दलपुर पट्ट के पट्टाधीश लोहाचार्य इसी समुदाय से थे।
      शौरीपुर(शौर्यपुर)/बटेश्वर के आस-पास लम्बकञ्चुक (लंबेचू) समाज  की बहुलता है। यह क्षेत्र लंबेचू समाज की देखरेख में है। शौरीपुर वटेश्वरके आस-पास जितने ग्राम हैं, वहां  लँबेचुओं के अनेक परिवार निवास करते हैं।इसी के पास  स्थित कचोराघाट ,जसवन्तनगर,सिरसागंज,खुरई,अटेर ,इटावा,वकेवर,करहल, भिंड में लंबेचू समाज के बड़ी संख्या में लोग रहते हैं।
लंबकांचन के शासक राजा लोमकर्ण जो लंबेचुओं के पूर्वपुरुष माने गए हैं,के बारह पुत्र हुए थे। उनसे ही इनके बारह गोत्र निकले हैं जो इस प्रकार हैं -

 1.सोनी ,2.बजाज, 3.रपरिया, 4. चंदवरिया ,5. राउत,,6..वकेवरिया, 7.मुजवार ,8.सोहाने, 9.चौसठथारी, 10.बरोलिहा, 11. पचोलये ,12.कुंअरभरये, ये बारह गोत्र प्रसिद्ध हुए। इनमें से प्रत्येक गोत्र सात उपगोत्रों में विभिजित हुआ जो सत्ता ( सप्तक यानी सात का समूह) कहलाया।
 
(1)-पहला सत्ता, सोनी गोत्र के सोनपाल जी से  चला।  
1. सोनी, 2. संघी, 3.पोद्दार, 4. चौधरी, 5. तिहैया, 6.मोदी, 7.कोठीवाल । यह पहला सत्ता(सप्तक) हुआ।  
यह नामकरण उनके पुत्रों के नाम, पदवी,व्यवसाय या निवास स्थान के आधार पर हुआ है।

(2)-दूसरा सत्ता ,बजाज गोत्र के श्री वीरसहाय से चला -
1. बजाज,2.  पटवारी, 3.गोहदिया, 4. मुड़हा, 5. वड़ोघर, 6.सेठिया, 7. तीनमुनैय्या ।

(3)-तीसरा सत्ता, रपरिया गोत्र के रतनपाल जी से चला -
1. कुदरा,2.अरमाल, 3. रुखारुवे, 4.शंखा,5. कसाहव ,6.(मानी)कानीगोह,7. सुहाभरे ।

(4)-चौथा सत्ता ,चंदवरिया गोत्र के  श्री चन्द्रमणि (चन्द्रसेन ) से प्रवर्तित हुआ-
 1.चन्दवरिया, 2. काकरभत्तले ,3. भत्तले,4. सागर,5. कसोलिहा ,6.असैय्या,7.वित्तिया ।

(5)-पाँचवां सत्ता ,राउत गोत्र के श्री जगसाह से प्रवर्तित हुआ।
1. राउत,2.भुंसीपादा,3.बावउतारू, 4.गगरहागा, 5. जीठ, 6. गुरहा, 7. पिलखनिया ।

(6)-छठवां सत्ता ,वकेवरिया गोत्र के श्री दीपचन्द्र जी चला। 1.वकेवरिया,2. गुजोहुनिया,3. गुझोनिया  जमेवरिया, 4. देमरा,5.माहोसाहू, 6.टंटे बाबू,7.जमसरिया।

(7)-सातवां सत्ता,मुंजवार गोत्र के  श्री मानपाल जी से चला -
1. मुंजवार,2. मेहदोले, 3.जखनिया ,4. छेढ़िया, 5.त्रेतरवाल, 6. दीदवाउरे ,7.दुधइया।

(8)-आठवां सत्ता,सोहाने गोत्र के श्री हरीकरण जी से प्रवर्तित हुआ।
1.सोहाने ,2.कोहला ,3.भजरोले ,4.कुर्कुटे,5.पडुकुलिया ,6. भण्डारी,7. जैतपुरिया ।

(9)-नोवां सत्ता,चोसठिथारी गोत्र के श्री चंपतराय जी से चला-
1.चोसठिथारी,2. कचरोलिया, 3.हिम्मतपुरिया ,4. बुढ़ेले, 5. हरोलिया ,6.बघेले ,7.इंदरोलिया ।

(10)-दशवां सत्ता,वरोलिया गोत्र के श्री मधुकरसाह से चला-
1. वरोलिया,2. वेदबावरे,3.रुहिया ,4.घिया,5. विलगइया ,6. कारे,7. शतफरिया ।

(11)-ग्यारहवां सत्ता,पचोलये गोत्र के श्री पीताम्बर दास जी से प्रवर्तित हुआ।
1. पचोलये,2. उड़दिया ,3.वैमर, 4.कालिहा ,5. मुरैय्या, 6.भण्डारिया 7.इटोदिया ।

(12)-बारहवां सत्ता,कुंवरभरये गोत्र के श्री गुमानराय जी से चला।
1. कुंअरभरये ,2.तिलोनिया ,3.सलेरिया 4.हरसोलिया ,5. सिंघी,6. पुरा 7.मझोने।

गोत्र और उपगोत्रों के भेद अलल कहलाते हैं और इस प्रकार लंबेचुओं में 84 अलल हैं जो इस प्रकार हैं-

1.चौधरी ,2. तिहइया,3. चन्दोरिया,4. वजाज ,5.संघई,6. कानूनगो, 7.पोद्दार,8.मोदी,9.कोठीवार, 10.रपरिया,11. वकेवरिया,12. पटवारी,13. पचोलये,14. राउत, 15.गोहदिया, 16. मुढ़ैया,17. कुंअरभरये ,18. मुजवार, 19. चोसठिथारी ,20. बड़ोघर,21. सेठिया,22. तीनमुनैया ,23. कुदरा ,24. भुसीपद, 25. बावतारू ,26.गगरहागा,27. रूखारुये,28. सुहाने ,29. शंखा,30. कांकरभत्तेले, 31. बरोलिया,32. मत्तले, 33. असइया 34.बित्तिया ,35. छेड़िया, 36. पिलखनिया,37. जीट ,38.गुझोनिया ,39.गुरहा, 40. माहोसाहू ,41. टाटेबाबू, 42.कोलिहा 43. जखेमिहा, 44.हरोलिया ,45. दीद बावरे ,46. जेतपुरिया,47. रुहिया ,48. मुरहइया ,49. वघेला ,50.वलगैय्या, 51. सलरैय्या, 52 कोलिहा ,53 देमरा, 54. गगरहागा,55. हिंडालिहा ,56 सिंहीपुरा ।यह छप्पन अलल तो  मौजूद हैं। लेकिन इनके अलावा 28 अलल लुप्त हो गए हैं।

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

पद्मावती पुरवाल जैन


 
पद्मावती पुरवाल जैन और पद्मावती नगरी के बीच नाभि-नाल सम्बन्ध रहा है।यह नगरी ही पद्मावती पुरवालों की उद्गम स्थली रही है। मगधराज महाराज श्रेणिक/बिंबिसार(ईसापूर्व 544) के शासन काल में व्यापारिक श्रेणियों की वैश्य महासभा बनाने के उद्देश्य से पद्मावती नगरी के एक धनी श्रेष्ठी ने व्यापारियों का एक सम्मेलन आहूत किया था जिसमें देश भर से 84 स्थानों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस बात से पद्मावती नगरी की प्राचीनता, ऐतिहासिकता और उसका सांस्कृतिक महत्व रेखांकित होता है।अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू ने (जो स्वयं पद्मावती पुरवाल समाज के एक रत्न हैं), अपने  'सम्मइ जिन चरिउ' ग्रंथ में  पद्मावती नगरी का 'पोमावइ'  के रूप में उल्लेख किया है। यह नगरी एक समय में बहुत समृद्ध थी। इसकी समृद्धि का उल्लेख खजुराहो से प्राप्त वि. सं. 1052 के शिलालेख में मिलता है। उसमें बताया गया है कि यह नगरी ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी प्रासादों और भवनों  से सुशोभित थी। उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें आकाश से बातें करती थीं
इस वर्णन से हम सहज ही पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं और यह बहुत सहज और स्वाभाविक है क्योंकि प्राचीन समय में आवागमन, यातायात और व्यापार  का सबसे सुगम साधन  नदियां ही थीं।  पद्मावती नगरी के चारों ओर भी नदियां हैं। इसलिए पूर्व में यह समृद्धिशाली नगरी रही होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
 वर्तमान में सिंध और पार्वती नदी के संगम पर ग्वालियर जिले में स्थित पवाया नामक एक छोटा सा ग्राम जो साहित्यिक और पुरातत्वीय सामग्री के आधार पर प्राचीन पद्मावती नगरी मानी जाती है। एक अभिलेख के अनुसार इसकी स्थापना त्रेता युग में पद्म राजवंश के एक राजा ने की थी ।
         तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का विहार पद्मावती नगरी में हुआ था। भगवान पार्श्वनाथ ने देश के अनेक भागों में विहार करके आर्हत धर्म का जो अतिशय प्रचार किया, उससे प्रभावित होकर अनेक आर्य, अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हुईं। नाग, द्रविड़ आदि जातियों में उनकी मान्यता असंदिग्ध थी । वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का उल्लेख वेद विरोधी व्रात्यों के रूप में  मिलता है ।
         वस्तुतः व्रात्य श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी ही थे । इन व्रात्यों में नाग जाति सबसे शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं । पार्श्वनाथ  नाग जाति के इन केन्द्रों में कई बार पधारे थे ।
            सर्व साधारण के समान राज परिवारों पर भी भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव था। उस समय जितने व्रात्य क्षत्रिय राजा थे वे पार्श्वनाथ के उपासक थे।
        पद्मावती नगरी का उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है। जिसे नागों की तीन राजधानियों में से एक बतलाया है। अन्य राजधानियों में कांतिपुरी और मथुरा थी । इसकी पुष्टि वायु पुराण से भी होती है। जिसमें दो राजवंशों का उल्लेख है, एक पद्मावती के और दूसरे मथुरा के । इन दोनों राजवंशों में क्रमश: 9 और 7 राजा हुए।पवाया में प्राप्त पुरालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है कि ईसा की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में यहां नाग राजाओं का राज्य था। पद्मावती नगरी के नाग राजाओं के सिक्के  मालवा में कई जगहों पर मिले हैं। नागवंश का पराभव ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग मध्य में हुआ। जब इनका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया था।
     पद्मावती नगरी का उल्लेख संस्कृत के महाकवि वाण के 'हर्षचरित' में हुआ है। सुविख्यात नाटककार भवभूति के 'मालती माधव' में भी इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है। जिसमें नगर की भौगोलिक स्थिति का विशद वर्णन किया गया है। यहां एक विश्वविद्यालय भी था जहां विदर्भ और सुदूरवर्ती प्रान्तों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे | ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है जिसके अनुसार पौराणिक काल में पद्मावती नाम का एक जनपद था, जिसका प्रधान केन्द्र 'पद्मनगर' था।
       मध्यकाल में पद्मावती 40 कि.मी. पश्चिम की ओर स्थित नरवर के शासक विभिन्न राजपूत तथा मुसलमान राजाओं के अधिकार में रही। सन् 1506 में सिकन्दर लोदी ने जब नरवर पर विजय प्राप्त की और तो उसने पवाया को जिले का मुख्यालय बनाया। कहा जाता है कि सफदर खां ने, जो कदाचित् पहला प्रशासक था, परमारों द्वारा बनवाये किले में सुधार किया और उसका नाम अस्कन्दराबाद रखा जैसा कि फारसी अभिलेख में उल्लिखित है। मुगल सम्राट जहांगीर ने इसे ओरछा के वीरसिंहदेव को उसकी स्वामिभक्ति के प्रतिफल में दिया था। बुन्देला सरदार ने यहां शिव का दुमंजिला मंदिर बनवाया ।
    यहां सन् 1925, 1934, 1940 और 1941 में चार बार उत्खनन कार्य किये गये । खुदाई में ईस्वी सन् की पहली शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक की अनेक पुरातात्विक महत्व की सामग्री मिली है। इनमें से एक मणिभद्र यक्ष की पूर्ण मानवाकार मूर्ति है जिस पर लगभग ईस्वी सन् की पहली शताब्दी के ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है। खण्डहरों से उपलब्ध अनेक सिक्कों को एकत्र करके ग्वालियर के संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया है।
       वर्षों तक उपेक्षित रहने के कारण पद्मावती नगरी का मूल स्वरूप तो नष्ट हो गया लेकिन ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक छोटा-सा गांव बसा हुआ है। अब यह मध्यप्रदेश प्रान्त के ग्वालियर जिले का एक गांव है जो दिल्ली से मुंबई  जाने वाली सेन्ट्रल रेलवे लाइन पर डबरा नामक स्टेशन से कुछ दूरी पर स्थित है। यह ग्वालियर मुख्यालय से 63 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
     यह पद्मावती नगरी ही पद्मावतीपुरवाल जाति का उद्गम  स्थल है। इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया ग्राम' का पद्मावतीपुरवालों के लिए विशेष और ऐतिहासिक महत्व  हैं भले ही आज वहां पर पद्मावती पुरवालों का निवास न हो लेकिन उसके आस-पास के क्षेत्रों में आज भी पद्मावती पुरवाल समाज के सैकड़ों परिवारों का निवास है। इक्ष्वाकु वंश परम्परा में हुए सोमवंशी नरेश जयकुमार जो हस्तिनापुर के प्रतापी शासक थे,को पद्मावती पुरवालों का पूर्वपुरुष बताया जाता है।जो कालांतर में धार्मिक, राजनीतिक कारणों से हस्तिनापुर से पलायन कर पद्म नगर में निवास करने लगे। पद्मावती नगरी पद्म नगर का ही अपर नाम है।
      अनेकान्त जून 1969 पृष्ठ 58 पर पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैन समाज की कुछ उपजातियां' शीर्षक लेख में लिखा है कि
पद्मावती पुरवाल सभी दिगम्बर जैन आम्नाय के पोषक हैं और बीसपंथ के प्रबल समर्थक हैं, प्रचारक हैं। पद्मावती पुरवाल ब्राह्मण भी पाये जाते हैं। यह अपने को ब्राह्मणों से संबद्ध मानते है। इस जाति के विद्वानों में ब्राह्मणों जैसी प्रवृत्ति पाई जाती है ।
इन्हीं पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग-2 पृष्ठ 458 पर लिखा है कि चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों में रहती है। इनकी संख्या भी कई हजारों में है। यद्यपि इस जाति के कुछ विद्वान अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं।
     ईसा की पहली शती में आसपास मथुरा, कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं का राज्य था। इनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से सम्राट कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में कान्तिपुरी और पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र में आते हैं। पद्मावती वर्तमान में पवाया नाम के छोटे से ग्राम के रूप में विद्यमान है। कान्तिपुरी के स्थान पर कुतवार (सिंहोनिया)नामक ग्राम है जो मुरैना जिले में स्थित है। जिस समय ये दोनों स्थान महानगरों के रूप में बसे थे, उस समय गोपाद्रि(गोपाचल) गोपों अर्थात् गोपालकों की भूमि थी और उसका विशेष महत्व नहीं था।
       जैनियों की चौरासी उपजातियों में एक 'पद्मावती पुरवाल' भी है। इसी उपजाति में रइधू नामक अपभ्रंश के महाकवि  हुए हैं। वह अपने आपको 'पोमावई-कुल- कमल- दिवाकर लिखते है। कुछ पद्मावतीपुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों से बतलाते हैं। जैन जाति के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण प्रसूत होने पर घोर आपत्ति है लेकिन परंपरा पद्मावती पुरवालों में प्रचलित जनुश्रुति का समर्थन करती है। जिसे वे पूज्यपाद देवनन्दि कहते हैं वह पद्मावती के नाग सम्राट देवनन्दि है । वह जन्मना ब्राह्मण थे। उनकी मुद्रायें बड़ी संख्या में पद्मावती में प्राप्त हुई हैं जिस पर 'चन्द' का लाच्छन मिलता है और 'श्री देवनागान्य या 'महाराजा देवेन्द्र' श्रुति वाक्य उल्लिखित है। देवनाग का अनुमानित समय ईसा की पहली शती है।पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति तथा पद्मावती के देवनाग का इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं। यह सर्वथा संभव है कि देवनन्दि या उनके किसी पुत्र ने जैनधर्म  अंगीकार कर लिया था और उसकी संतति पद्मावती पुरवाल जैन कहलाने लगी। ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से भले ही पद्मावती पुरवाल अपनी मूल भूमि छोड़कर अन्यत्र चले गए  तो भी वे न तो पूज्यपाद देवनन्दि को भूले और न अपनी धात्री पद्मावती को ही भूले। इस प्रकार पद्मावती ( पुर) नगर के रहने वाले जन ही कालांतर में पद्मावती पुरवाल कहलाए । खंडेलवाल जैन समाज के बृहद इतिहास के विद्वान लेखक डा.कस्तूरचंद कासलीवाल ने पूज्यपाद(देवनदी) को पद्मावती पुरवाल माना है। वरहिया जैन समाज के रत्न ग्वालियर निवासी श्री रामजीत जैन, एडवोकेट ने पद्मावती पुरवाल जैन समाज का इतिहास लिखा है।जो इस समाज का पहला और व्यवस्थित अध्ययन है। जिसमें उन्होंने श्रमपूर्वक अनेक बिखरे सूत्रों को संजोया है।

प्राचीन साहित्य में इस जाति के सिंह और धार दो गोत्रों की चर्चा मिलती है। इस सदी के पूर्वार्ध में सिरमौर, पांडे और सिंघई गोत्र प्रचलन में थे। सामाजिक व्यवस्था में प्रधान को सिरमौर, पौरहित्य कर्म करने वाले को पांडे और प्रबंधक का दायित्व निभाने वाले को सिंघई नाम से संबोधित किया गया।
 उ. प्र. में  प्रचलित कुछ गोत्र हैं इस प्रकार हैं - 1. सिरमौर, 2. पांडे, 3. सिंघई, 4. कोड़िया, 5. कड़सरिया, 6. सिंह, 7. धार, 8. पाढ़मी। कुछ अन्य गोत्र  1. केड़िया,2.अजमेरा या श्रीमोर हैं। काफी अनुसंधान के बाद इस बारे में जो विवरण जुट सका। उसके अनुसार अंतिम गोत्र सूची इस प्रकार है -
1. सिंह, 2. उत्तम, 3. सरावगी, 4. सेठ, 5. नारे, 6. तिलक, 7. धार, 8. सिरमौर (श्रीमोर या अजमेरा), 9. पांडे, 10. कौन्देय, 11. चौधरी, 12. केड़िया, 13. पाढ़मी, 14. कड़ेसरिया, 15 सिंह, 16. सिंघई।

बुधवार, 11 जनवरी 2023

खंडेलवाल जैन

खण्डेलवाल जैन समाज समस्त दिगम्बर जैन समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है । इस समाज ने अपने उद्भव काल से लेकर आज तक जैन धर्म और संस्कृति को समृद्ध कर दिगंबर जैन समाज को गर्वोन्नत किया है । इस समाज का वर्तमान जितना स्वर्णिम है ,उनका अतीत भी उतना ही गौरवशाली रहा है । उत्तर भारत में खण्डेलवाल जैन समाज का सभी क्षेत्रों में बहुधा वर्चस्व रहा है । उसके लाड़ले सपूत समाज की सभी गतिविधियों में भाग लेते रहे हैं और आज भी उसी गौरव को कायम रखे हुए हैं। खंडेलवाल जैन समाज राजस्थान, मालवा, आसाम, बिहार, बंगाल, नागालैंड, मणिपुर, उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों एवं महाराष्ट्र में बहुसंख्यक समाज रहा है और आज भी मुंबई, कलकत्ता, जयपुर, इन्दौर, अजमेर जैसे नगरों में उसकी बहुसंख्या है। इस समाज में अनेक आचार्य, मुनि, भट्टारक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी हुये हैं,जिन्होंने देश एवं समाज को प्रभावशाली मार्गदर्शन दिया है। सैकड़ों ,हजारों मन्दिरों के निर्माणकर्ता, प्रतिष्ठाकारक, मूर्ति प्रतिष्ठा कराने वाले अनेक धर्मनिष्ठ खंडेलवाल दिगंबर जैन समाज के रत्न हैं। खंडेलवाल समाज के लोग राज्य में प्रमुख और उच्च पदों पर पदस्थ रहे हैं और राज्य संचालन में सहयोगी रहे हैं। समाज में भी उनका बहुमान रहा है। इन्होंने सैकड़ों वर्षों तक जयपुर राज्य की अभूतपूर्व सेवा की एवं युद्ध भूमि में विजय-श्री का वरण किया। राजस्थान के सैकड़ों मन्दिर इसी समाज के द्वारा निर्मित है । अकेले जयपुर नगर से 200 से अधिक मन्दिरों का निर्माण इस समाज की अतीव धर्म-निष्ठा का उदाहरण है । सांगानेर, मोजमाबाद, टोडारायसिंह, लाडनूं, सुजानगढ़, सीकर के मन्दिरों के उन्नत शिखर आज भी उनकी गौरव गाथा कहते हैं। इस समाज की धार्मिक आस्था तथा व्रत उपवास, पूजा एवं भक्ति आदि कार्यों में रुचि से सारा दिगम्बर जैन समाज अनुप्राणित रहता है। इनके रीतिरिवाजों में श्रमण संस्कृति की झलक दिखाई देती है तथा उसका प्रत्येक सदस्य जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करता है । सारे देश में फैले हुए खण्डेलवाल जैन समाज संख्या की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है जो दस लाख के करीब है अर्थात् पूरे दिगम्बर जैन समाज का पांचवां हिस्सा है। खण्डेलवाल जाति का नामकरण खण्डेला नामक नगर के आधार पर हुआ है जो राजस्थान के सीकर जिले में ,सीकर से 45 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। खण्डेला के इतिहास की अभी पूरी खोज नहीं हो सकी है लेकिन श्री हर्ष की पहाड़ी पर जो पुरावशेष मिलते हैं उससे पता चलता है कि शैव पाशुपतों का केन्द्र बनने के पहिले यह नगर जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसका पुराना नाम खंडिल्लकपत्तन अथवा खण्डेल गिरि था। भगवान महावीर के 10वें गणधर मेदार्य ने खण्डिल्लकपत्तन में आकर कठोर तपस्या की थी ऐसा उल्लेख आचार्य जयसेन ने अपने ग्रन्थ धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति में किया है ।आचार्य जयसेन 11 वीं शताब्दी के महान साधक थे और अमृतचन्द्र वह सोमदेव की परंपरा के आचार्य थे ।

 "श्रीवर्धमाननाथस्य मेदार्यो दशमोऽजनि । गणभृद्दशधा धर्मो यो मूर्तो वा व्यवस्थितः || मेदार्येण महर्षिभिविहरता, तेये तपो दुश्चर। श्रीखंडिल्लक पत्तनान्ति करणाभ्यर्द्धिप्रभावात्तदा ॥ "

 खण्डेला का पूरा क्षेत्र ही अत्यधिक प्राचीन क्षेत्र रहा है । यहाँ पर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के एक अभिलेख में प्रसंगवश इस नगर का उल्लेख मिलता है। खंडेला के राजनैतिक इतिहास के बारे में शोध की काफी गुंजाइश है। प्राप्त विवरण के आधार पर यहाँ पर प्रारंभ में निरबाण चौहान (चौहान राजपूतों की एक शाखा) राजाओं का राज्य रहा है। हम्मीर महाकाव्य में भी खंडेला का नामोल्लेख है। महाराणा कुम्भा ने भी खंडेला पर अपनी विशाल सेना को लेकर आक्रमण किया था और यहां खूब लूटपाट की थी । सन् 1467 मे यहाँ उदयकरण का शासन था ऐसा वर्धमान चरित की प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है । रायमल खंडेला के प्रसिद्ध शासक रहे हैं और जो अपने मन्त्री देवीदास के परामर्श से मुगल सेना में भर्ती हुये ।अपनी वीरता एवं स्वामी भक्ति के सहारे मुगल बादशाह अकबर के कृपा पात्र बनकर उन्होंने खंडेला और अन्य नगरों की जागीर प्राप्त की थी । वे बराबर आगे बढ़ते रहे। रायमल जी के समय में ही खंडेला चौहानों के हाथों में से निकल कर शेखावतों के हाथों में आ गया था। विक्रम की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में जब महाराज खण्डेलगिरि खंडेला के शासक थे तब खंडेला नगर अपने पूर्ण वैभव पर था और उस समय यहां 900 की संख्या में जिनालय थे । हजारों परिवार तो कोटिध्वज थे। नगर के सभी निवासियों का वैभव उत्कर्ष पर था। उत्तर भारत में खंडेला नगर जैनों का प्रधान केन्द्र था लेकिन स्वयं महाराज खण्डेलगिरि जैन होते हुये भी शैव धर्म की ओर झुके हुए थे। क्योंकि उनके सभी मन्त्री और पुरोहित शैव थे और उनका यज्ञों में गहरी आस्था और विश्वास था ।

     एक समय प्लेग की महामारी के प्रकोप से जब खंडेला में हजारों लोग असमय काल के गाल में समाने लगे और जीवन रक्षा के लिए यहां से पलायन करने को विवश हो गये तो महाराज खंडेलगिरि के इस विषय में चिंतित होने पर उनके मंत्रियों ने उन्हें नरमेध यज्ञ का परामर्श दिया। धूर्त मंत्रियों और श्रमणद्वेषी पंडितों ने षड्यंत्रपूर्वक नगर के बाहर एक उद्यान में साधनारत जैन साधुओं को यज्ञ में जीवित ही होम दिया। भले इस जघन्य कार्य में महाराज खंडेलगिरि की सहमति नहीं रही लेकिन इससे उनकी बहुत अपकीर्ति हुई। जैन मुनियों पर हुए इस घोर उपसर्ग और नरमेध का समाचार जब आचार्य अपराजित जिनका अपर नाम यशोभद्राचार्य था,को प्राप्त हुआ तो वह इस नरमेध कांड को लेकर बहुत चिंतित हुए। उन्होंने अपने पूरे संघ को एकत्र कर इस विषय में उनके साथ गंभीर विचार विमर्श किया। आचार्य यशोभद्र ने सबकी सम्मति से इस असाधारण स्थिति से निपटने के लिए आचार्य जिनसेन को ऐसे पापाचार के उन्मूलन के लिए खंडेला भेजा। प्लेग के भंयकर प्रकोप के बीच आचार्य जिनसेन कुछ साधुओं के साथ खंडेला नगर आए और नगर के बाहर उद्यान में ठहर गये । उन्होंने नगर में रहने वाले श्रावकों को बुलाया और इस असाध्य महामारी से बचने के लिए नगर खाली कर नगर के बाहर एक गुढ़ा (उपनगर) में आकर रहने को कहा ताकि उनकी जीवन रक्षा हो सके। सभी श्रावकों ने आचार्य जिनसेन के आदेश को शिरोधार्य किया। आचार्य जिनसेन ने अपनी आराधना और तपोबल से चक्रेश्वरी देवी को प्रसन्न किया और उनसे उपनगर में रहने वाले लोगों की जीवन रक्षा की प्रार्थना की। चक्रेश्वरी देवी के आशीर्वाद से उपनगर में रहने वाले सभी लोगों को महामारी रोग से मुक्ति मिल गयी। इसी बीच स्वयं महाराजा खण्डेलगिरि भी प्लेग से ग्रस्त होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच गये। सब ओर से निराश,हताश होकर उन्होंने भी उसी गुढ़ा (उपनगर) में आश्रय लिया, जहां आचार्य जिनसेन श्रावकों के साथ विराज रहे थे । अपनी शरण में आए खण्डेलगिरि को आचार्य श्री ने रोगमुक्ति और धर्मानुरागी होने का आशीर्वाद दिया। स्वास्थ्य लाभ के पश्चात् कृतज्ञ महाराज खंडेलगिरि ने भादों सुदी 13 रविवार विक्रम संवत् 101 के शुभ दिन खंडेला में विशेष दरबार लगाया गया। सभी सामंतों एवं दरबारियों के साथ आचार्य-श्री जिनसेन को भी वहां आमंत्रित किया।अपने संघ के कुछ साधुओं के साथ आचार्य-श्री के वहां पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ।सभी ने आचार्य-श्री की भूरि भूरि प्रशंसा की और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया। आचार्य श्री ने महाराजा खण्डेलगिरि को उनके पूरे परिवार के साथ जैन धर्म में दीक्षित किया और अहिंसा धर्म का कट्टरता से पालन करने का नियम दिलाया। इस अवसर पर महाराजा खण्डेलगिरि के साथ 13 अन्य चौहान परिवारों के सामन्तों को भी जैन धर्म मे दीक्षित किया। ( 1 ) महाराजा खण्डेलगिरि ( 2 ) राजा श्रीभावस्यंध जी (3) राजा श्री पूरणचन्द्र जी (4) राजा श्री योमसिंहजी (5) राजाश्री अजबसिंह जी (6) राजाश्री अभयराम जी (7) राजा श्री नरोत्तम जी (8) राजा श्री झांझाराम जी (9) राजा श्री जसोरामजी (10) राजा दमतारिजी (11) राजा श्रीभूधरमल जी (12) राजा श्री रामसिंह जी (13) राजा श्री दुरजनसिंहजी (14) राजा श्री साहिमलजी ।

   ये सब महाराजा खण्डेलगिरि के परिवार के होने के कारण इन्हें भी राजा की उपाधि प्राप्त थी। इसलिए इन सबको जैन धर्म में एक साथ दीक्षित किया गया। सभी इतिहासकार इस बात पर एक मत है कि यशोभद्राचार्य के लघु शिष्य आचार्य जिनसेन ने खण्डेला जाकर वहां के राजा खण्डेलगिरि को जैन धर्म में दीक्षित किया तथा राजा के कुटुम्ब को प्रथम साह गोत्र प्रदान किया । उनके सामन्तों को भी उसी समय जैन धर्मानुयायी बनाकर  आचार्य जिनसेन द्वारा 14 गोत्रों की स्थापना की गयी। इस घटना के समय के सम्बन्ध में कुछ मतभेद अवश्य है। क्योंकि कुछ इतिहासकार इसे विक्रम सम्वत् 2 मानते है तथा कुछ सम्वत् 101 मानते है । 

   डॉ.कैलाशचन्द जी जैन ,उज्जैन वालों की मान्यता है कि खण्डेलवाल जाति का उद्भव सम्भवतः 8 वीं शताब्दी में हुआ हो क्योंकि इससे पूर्व का अभी तक कोई इतिहास नहीं मिल सका है। जब खण्डेलवाल जाति अधिक संख्या में हो गई तो उसने गाँवों के नाम से गोत्र स्थापित कर लिये। 

      पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने लिखा है कि जैन धर्म जाति प्रथा का अत्यन्त विरोधी रहा है लेकिन वह भी इस दोष से अपने की नहीं बचा सका । कहने के लिये इस समय जैन समाज में 84 जातियाँ है। लेकिन कुछ ऐसी भी हैं जो दो हजार वर्ष से पहले ही अस्तित्व में आ गई थी ।

    पं० भंवरलाल जी पोल्याका ने महावीर जयन्ती स्मारिका वर्ष 1974 में सम्वत् 1879 में लिपिबद्ध की हुई एक पाण्डुलिपि में वर्णित खण्डेलवाल जाति के इतिहास दिया है और फिर साह गोत्र की एक वंशावली उद्धृत की है । इसकेपश्चात् पंडित जी ने उत्पत्ति काल पर लिखा है कि पाण्डुलिपियों में निर्दिष्ट सम्वत् 1 ( एक ) विक्रम सम्वत् 1 न होकर हर्ष सम्वत् है जो विक्रम सम्वत् 662 वर्ष पश्चात् चला था । आगे चल कर आपने लिखा है कि इनसे विक्रम सम्वत् 2-3 आदि की संगति कैसे बैठे। ये यथार्थ मे 101, 102, 103 आदि है और बोलने में इनको 1-2-3 आदि बोलते है । पोल्याका जी के अनुसार विक्रम सम्वत् 901 मे खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति हुई थी । आचार्य जिनसेन द्वारा खण्डेला राज्य के सभी राजपूतों ने जैन धर्म में दीक्षा प्राप्त की थी। इन राजपूतों की संख्या तीन लाख थी । इसलिये सभी राजपूत खण्डेलवाल जैन कहलाने लगे और उन्होंने हिंसा वृत्ति छोड़कर श्रावक धर्म के पालन का व्रत लिया । खण्डेलवाल जैन जाति जिसकी वर्तमान में वैश्य जाति में गणना की जाती है प्रारम्भ में क्षत्रिय थी । विगत दो हजार वर्षों से श्रावक धर्म का पालन करने और व्यापार वाणिज्य में संलग्न रहने के कारण वह वैश्य जाति में मान ली गयी । खण्डेलवाल जाति में खण्डेला में रहने वाले दूसरे जैन सम्मिलित नहीं थे । लेकिन वे किस जाति के रहे इसका कोई विवरण नहीं मिलता। कदाचित वे भी कालांतर में खण्डेलवाल जैनों में सम्मिलित कर लिये गये हों लेकिन इसकी कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती । यद्यपि खण्डेला नगर में जैन धर्म का पूर्ण प्रभाव था । महाराजा खण्डेलगिरि के जैन धर्म में दीक्षित होने के पूर्व भी वहां पर्याप्त संख्या मे जैन धर्मावलम्बी और जिनालय थे । वे सभी भगवान महावीर के 10वें गणधर मेदार्य के खण्डेला क्षेत्र में प्रभाव के कारण वहां जैन धर्मानुयायी बने होंगे लेकिन जब महाराजा खण्डेलगिरि ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो जैन धर्म वहां का राजधर्म बन गया इसलिये वहां जैन धर्म की अतिशय प्रभावना होने लगी । सैकड़ों की संख्या में मुनियों का विहार होने लगा और प्रथम पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समारोह भी आचार्य जिनसेन के सानिध्य में संवत् 101 वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न हुआ । इसके पश्चात् इसके आगे भी वहाँ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समारोह आयोजित होते रहे । नये मन्दिरों का निर्माण, मूर्तियों की प्रतिष्ठा होती रही और खण्डेला के सारे क्षेत्र में जैन शासन की प्रभावना होती रही ।खण्डेला नरेश और उनके सामन्तों के परिवार सैकड़ों वर्षों तक अपने-अपने क्षेत्र में निवासरतर रहे और व्यापार व्यवसाय तथा राज्य प्रशासन में सहयोग देते रहे । खंडेला और उसके आसपास के ग्रामों में नवदीक्षित खंडेलवाल जैनों का वर्चस्व कायम हो गया और उनकी गणना वहां के संभ्रांत नागरिकों में होने लगी। राजाओं एवं जागीरदारों के वे ही प्रमुख व्यवस्थापक थे । राज्य के बड़े बड़े अधिकारियों को जहाँ दीवान या मन्त्री के नाम से पुकारा जाता था वहीं जागीरदारों के प्रमुख व्यवस्थापकों को कामदार कहा जाता था। कामदारा भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलता था । इनके परिवार बढ़ने पर इन्हें रोजगार के अन्य साधन अपनाने पड़े और जब खेती, व्यापार एवं सेवावृत्ति से भी काम नहीं चला तो आजीविका के लिए उनको बाहर जाना पड़ा। देशांतर में जाकर भी उन्होंने सभी क्षेत्रों में अपने झंडे गाड़े और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

    खंडेलवाल समाज के लोग सीकर, लाडनूं, नागौर,सांभर,नारायणा,चित्तौड़ , अजमेर, घटियाली, मालपुरा,आमेर, सांगानेर, इंदौर, उज्जैन, रतलाम, बड़नगर, लश्कर, मुंबई, नागपुर,वाशिम, वर्धा, अकोला,भिलाई, दुर्ग, छिंदवाड़ा, औरंगाबाद, हैदराबाद, दिल्ली आगरा, बिहार, बंगाल,असम, नगालैंड, मणिपुर यानी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक आबाद हैं और अपने -अपने क्षेत्र में अग्रणी हैं। खण्डेलवाल दिगम्बर जैन समाज 84 गोत्रों में विभाजित है। इन गोत्रों का इतिहास भी उतना ही रोमांचक है जितनी उसकी उत्पत्ति है। लेकिन इतना अवश्य है कि प्रारम्भ से ही खंडेलवाल समाज में गोत्रों को अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त रही इसीलिये खण्डेलवाल जैन बन्धु अपने नाम के आगे गोत्र-नामों का उपयोग करते रहे है और इन्होंने जैन लिखने के स्थान पर गोत्र लिखने को अधिक वरीयता दी । कदाचित जयपुर, अजमेर, इन्दौर जैसे नगरों में जहां खण्डेलवाल समाज के हजारों परिवार निवास करते हैं और उनमें विभिन्न गोत्र वाले श्रावक शामिल हैं इसलिए सुस्पष्ट पहचान के लिये इस समाज में गोत्रों का उपयोग होने लगा हो । 

   अकारादि क्रम से उनकी गोत्र सूची निम्न प्रकार है-

 1. अजमेरा ,2. अनोपडा,3 अरडक,4. अंहकारया,5. कडवागर,6. कटारिया,7. काला,8. कासलीवाल,9. कुलभण्या,10. कोकराज,11. गदिया,12. गंगवाल,13. गिदोड्या,14. गोतवंशी ,15. गोधा - ठोल्या,16. चांदुवाड,17. चिरकन्या,18. चौधरी,19. चौवर्या,20. छाबड़ा,21. छाहड़,22. जगराज्या,23. जलभण्या / जलवाण्या,24. झांझरी,25. टोंग्या,26. दगड़ा,27. दरडोद्या,28. दुकड्या, 29. दोसी,30. नरपत्या,31. निगद्या,32. निगोत्या,33. निरपोल्या,34.पापडीवाल,35.पापल्या,36.पहाड़िया,37.पाटणी,38पाटोदी,39.पांडया-झीथर्या,40. पिंगुल्या,41. पीतल्या,42. पोटल्या,43 बज ( श्रामण्या ),44. बज ( मोहण्या ),45. बंब,46. बाकलीवाल,47. बिलाला,48. बिलाला दुतिक,49. बोरखण्ड्या,50. बोहरा,51. बैनाडा,52. भडसाली,53. भसावड्या,54. भागड्या,55. भांवसा,56. भूवाल,57. भूलाण्या,58. मूंछ/भौंच,59. मूलराज,60. मोठ्या, 61. मोदी,62. मोलसर्या,63. राजभद्र,64 राजहंस्या,65. रारा,66. राउंका/रांवका,67. रावत्या,68. लटीवाल,69. लुहाड्या,70. लोहट / लावट,71. लोहंग्या,72. वनमाली,73. विनायक्या,74. वैद,75. सरवाड्या,76. साखूण्या,77. सांभर्या,78. साह,79. सुरपत्या,80. सेठी,81. सोगाणी,82. सोहनी/सोनी,83 हलद्या, 84. क्षेत्रपाल्या 

   उक्त गोत्रों के अतिरिक्त विभिन्न इतिहास लेखकों ने 84 गोत्र नामावली में जिन अन्य गोत्रों को और सम्मिलित किया है उनके नाम निम्न प्रकार है-

    1.बांदरया 2. बिरल्या 3. ठग 4. पांवड्या 5. सेठी दूजा,6. लावठो,7. बबरा,8. मोल्या,9. पांड्या,10. पांड्या दूजा,11. बिबला,12. बिव,13. कुरल्या,14. सोहनी,15. कीकरवा,16. जेसवाल,17. वावसया,18. निरगन्धा। 

   उक्त गोत्रों के अलावा प्रशस्तियों में कुछ अन्य गोत्रों का भी उल्लेख मिला है उनके नाम निम्न प्रकार है- 

1. साधु गोत्र 2. ठाकुल्यावाल 3. मेलूका 4. नायक 5. खाटड्या 6. सरस्वती गोत्र 7. कुरकुरा 8. वोटवाड 9. काटरावाल 10 भसावड्या 11. बीजुवा 12 कांधावाल 13. रिन्धिया 14 सांगरिया ।

सोमवार, 9 जनवरी 2023

परवार जैन


 
परवार जाति के पूर्वज परमार क्षत्रियों के वंशज हैं, यह तथ्य इतिहास सिद्ध है। इसके लिए परमार, पंवार, पुरवार, पोरवार, पोरवाड़, पोरवाल, पद्मावती पोरवाड़ या जांगड़ा पोरवाल आदि अनेक नामान्तर प्रचलित हैं। ये भिन्न भिन्न प्रदेशों में निवास करते हैं ।
         परवार जाति में बारह गोत्र मान्य है और प्रत्येक गोत्र में बारह-बारह मूर है, फलतः कुल १४४ मूर है ।(मूर शब्द संस्कृत 'मूल' का अपभ्रंश है।) इनके अलावा १४५वाँ मूर भी है, जिसका नाम 'सिंहबाघ' अथवा 'सदाबदा' कहा जाता है । यह अन्तिम गोत्र का मूर माना जाता है। कहा जाता है कि जिस व्यक्ति का परिवार देशान्तर चला गया हो अथवा कालान्तर में अपना मूर-गोत्र भूल गया हो तो वह जातीय पंच उसे अन्तिम गोत्र और तेरहवाँ मूर प्रदान कर देते थे और इसी आधार पर विवाहादि कार्य पंच सम्पन्न करा देते थे ।
         'मूर' शब्द मूल स्थान का वाचक है और मूल से तात्पर्य मूल निवास स्थान से है । जो व्यक्ति देशान्तर में निवास करता है उसका परिचय लोग मूल निवास स्थान से आज भी लेते हैं। परवार जाति के प्रत्येक व्यक्ति के गोत्र के साथ 'मूर' भी पृथक् पृथक् पाया जाता है। परवार जाति का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका कोई गोत्र और मूर न हो। इसका यह अर्थ हुआ कि ये वर्तमान में भले ही मध्यप्रदेश में निवास करते हैं तो भी इनका मूल निवास कहीं अन्यत्र रहा है और ये किसी राजनीतिक और धार्मिक कारण से अपने मूल निवास को छोड़कर मध्यप्रदेश और उसके आसपास आकर बसे हैं । जो जिस ग्राम के पूर्व निवासी हैं उसी ग्राम को वे अपना मूर (मूल) आज भी मानते हैं, भले ही वे इस बात को आज न जानते हों, परन्तु उन्हें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिये।
          गुजरात प्रान्त में अनेक ग्राम इस प्रकार पाये जाते हैं जिनसे यह मान्यता स्पष्ट होती है कि परवार जाति के मूर इन्हीं ग्राम-नामों पर हैं- जैसे ईडर के निवासी 'ईडरीमूर', रखियाल ग्राम के निवासी ' रखयामूर', नारदपुरी से 'नारद', दुद्दो से 'देदामूर', लोटासन से 'लोटामूर', कठासा से 'कठामूर', पटवारा से 'पटवामूर', बहेरियारोड से 'बहेरियामूर' आदि । इस प्रकार ग्रामों और मूरों का परस्पर संबंध स्पष्ट है। तात्कालिक राजनीतिक, धार्मिक कारणों और प्राकृतिक विपदाओं के कारण परवार जाति के लोगों को अपने धर्म एवं मूलसंघ की रक्षा के लिए गुजरात प्रदेश छोड़कर मध्यप्रदेश मे आकर बसना पड़ा था।  यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन परमार क्षत्रियों ने तत्कालीन गुजरात प्रदेश के श्वेताम्बर धर्म के अनुयायी राजाओं के दबाव से दि० जैनधर्म छोड़कर श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया. उन्हें उन राज्यों से निष्कासित नही किया गया। वे श्वेताम्बर हो गये, इसलिए श्वेताम्बरों में भी परमार पाये जाते हैं ।
            गुजरात प्रान्त छोड़कर जब मूलसंघ के अनुयायी परवार जाति के लोगों को अपने धर्म की रक्षा हेतु देशान्तर जाना पड़ा तो उस समय मालवा, उज्जैन, चंदेरी, सिरौंज, टीकमगढ़, पन्ना और छतरपुर आदि स्थानों में परमार / बुन्देला तथा अन्य क्षत्रिय वंशों का शासन था । इनमें अनेक राज्य / रियासतें जैनधर्म की अनुयायी थी या उससे प्रभावित थीं। अतः वहाँ परवारों को आश्रय मिला। चूंकि परवार जाति के लोग उन क्षेत्रों में पहिले से निवासरत थे इसलिए आगत लोगों को यहां बसना सुविधाजनक लगा।परवार समाज यहाँ आज भी बहुतायत में पाया जाता है। छतरपुर बुंदेलखंड में एक प्रतिष्ठित राज्य था। यहाँ के शासक बुन्देला परमार क्षत्रिय थे तथा जैनधर्म से पूर्ण प्रभावित थे | उनके राज्य में जैनियों की बड़ी प्रतिष्ठा थी ।उस समय बुन्देलखण्ड के क्षत्रिय जैनधर्म के अनुयायी भी थे या उसके अनुकूल थे और इसलिए भी गुजरात से आये उन दि. जैन भाइयों को उन्होंने अपने-अपने राज्य में आश्रय दिया था। इसी तरह उज्जैन, चंदेरी सिरौंज, ओरछा आदि राज्यों में भी उनको आश्रय मिला । अतएव इन अंचलों में परवार समाज की जनसंख्या आज भी बहुतायत में पाई जाती है। स्मरण रहे कि मूल आम्नायी दि. जैन परवार, गोला पूर्व, गोलालारे तथा गोलसिंघारे -इन जैन जातियों का यहाँ पहिले से निवास था, इसलिए  गुजरात छोड़कर यहाँ बसने का निर्णय उचित और स्वाभाविक था ।
    वैवाहिक सम्बन्ध :
           परवार जाति में परस्पर में वैवाहिक सम्बधों में गोत्र तो बचाया ही जाता है, साथ ही मूरों को भी बचाया जाता है। अपने मूर के साथ ही अपने  माता और पिता की आठ पीढ़ियों या चार पीढ़ियों का मूर बचाकर ही सम्बन्ध किया जाता रहा है और इसी आधार पर  'अठसखा' (अष्टशाखा) और चौसखा कहलाए। चौसखा  चार शाखाओं का बचाव करके विवाह करते थे,  और दोसखा दो शाखाओं का बचाव करके विवाह करते थे। वर्तमान में अब केवल चार या दो शाखाओं का ही विचार किया जाता है और ऐसा प्रायः सभी समुदायों में देखा जा रहा है।
     जिन पट्टावलियों, शिलालेखों अथवा प्रतिमालेखों में 'अष्टशाखा' या 'चौसखा' आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, उसमें परवार शब्द का उल्लेख न भी हो अथवा अठसखा और चौसखा के साथ पोरवाल या पोरवाड़ जाति का उल्लेख हो तो वे सब भी परवार जाति के ही नामांतर माने जाने चाहिये ।
      परवार जाति में जो बारह गोत्र मान्य है, उनका कोई इतिहास नहीं मिलता । किन्तु इसी प्रकार के कई गोत्र अग्रवालों में तथा गहोई जाति में (जो वर्तमान में जैन नहीं हैं) में भी पाये जाते हैं अथवा इनसे मिलते-जुलते शब्दों वाले गोत्र पाये जाते हैं। 'कच्छी बीसा ओसवाल जैन संघ' पुस्तिका में इस समाज के छह गोत्र तथा 88 अटक (उपगोत्र)लिखे हैं | इनमे 'परमार' भी एक गोत्र है। वर्तमान मे 35 अटक है, जिनमें पुरवाज सोरठिया, लोटा सुरखिया आदि है, जो परवार जाति के मूरों से मिलते हैं | सम्भव है कि इन मूर वालों ने श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया हो । उक्त उदाहरणों से यह बात सिद्ध होती है कि कालान्तर में एक गोत्र के भीतर भी अनेक जातियाँ बन गई हैं। साथ ही धर्म का पालन करना व्यक्तिगत आस्था के आधार पर ही रहा है। इसीलिए अग्रवाल, खंडेलवाल, पोरवाड़, पोरवाल, गहोई, जैसवाल तथा नेमा - इन जातियों में जैन धर्मानुयायी तथा वैष्णव धर्म के अनुयायी भी पाये जाते हैं। यद्यपि गहोई जाति में  आज जैन धर्मानुयायी नहीं हैं, परन्तु ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मे उनके द्वारा प्रतिष्ठित दि. जैन प्रतिमायें दि.जैन तीर्थ क्षेत्र अहार ( टीकमगढ़, म.प्र. ) के संग्रहालय में हैं। अहार क्षेत्र की मूल नायक शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमा भी 'गहोई वंश' के द्वारा प्रतिष्ठित है । उसमें इन्हें गृहपति अन्वय के नाम से उल्लेखित किया गया है | गृहपति शब्द का प्राकृत भाषा में 'गिहवई' और 'गहवई' रूप बनता है और बोल-चाल की भाषा में वह 'गहोई' शब्द  के रूप में प्रचलित हो गया है। परवारों और गहोइयों के नौ गोत्र आपस में मिलते हैं।गहोईयों में एक आंकना (मूर) सरावगी भी है जो परवार और गहोई जातियों के बीच निकटता दर्शाता है।नन्दिसंघ की पट्टावली से मालूम होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र वि. सं. 962 में नन्दिसंघ के पट्ट पर बैठे थे ।पट्टावलियों से यह भी पता चलता है कि वि. सं. 4 में आचार्य भद्रबाहु द्वितीय से मूलसंघ प्रारम्भ हुआ। उनकी शिष्य परम्परा मे वि. सं. 142 में लोहाचार्य हुए । शिष्य परम्परा की दृष्टि से वह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। पहला पूर्वपट्ट कहलाया, जो मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और दूसरा उत्तरपट्ट कहलाया।पं. नाथूराम 'प्रेमी' के शब्दों में 'पुरवाट्', 'प्राग्वाट्' ये नाम परवार जाति के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। यह भारतीय इतिहास की जाति विषयक एक विचित्रता कही जा सकती है कि किसी समय में क्षत्रिय तथा श्रेष्ठिवर्ग (वैश्य कुल) में विवाह सम्बन्ध अनुज्ञेय थे। 'पुरातन प्रबन्ध' में नाडोल के लक्ष्मण चौहान का विवाह एक श्रेष्ठी की पुत्री से होना लिखा है। अग्रवाल, माहेश्वरी, जैसवाल, खण्डेलवाल और ओसवालों का उद्भव क्षत्रियों से बताया जाता है। इनको अहिंसक होने और वाणिज्य व्यापार संलग्न रहने के कारण भले ही वैश्य कहा जाने लगा हो लेकिन आज भी इनके रक्त में स्वाभिमान झलकता है।
      उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "पोरपाट" का सर्व प्रथम उल्लेख अहार जी के मूर्तिलेखों में मिलता है। पौरपट्ट या परवार जाति का 16वीं-17वीं शताब्दी तक  गुजरात से लगातार सम्पर्क बना रहा है। परवार जाति के लोगों का रूप-रंग,रहन-सहन आदि से काफी हद तक उनका मेल खाता है। परवार जाति में 12 गोत्र जिस प्रकार के पाये जाते हैं, उसी से मिलते-जुलते जुझोतिया ब्राह्मण, अग्रवाल, गहोई व अन्य वैश्यों में भी पाए जाते है। प्रेमी जी की इस मान्यता में वजन मालूम होता है कि वैश्यों की लगभग सभी जातियाँ राजस्थान से निकली है । 'पद्मावती पोरवाल' परवारों की ही एक शाखा मानी गई है। जिसका उल्लेख पं. बखतराम ने 'बुद्धि विलास' ग्रन्थ में श्रावकोत्पत्ति प्रकरण मे किया है- “पौरपाट” शब्द का प्रथम प्रयोग वि. सं. 610 के साढोरा ( गुना) स्थित मूर्ति लेख में मिलता है। इसके पूर्व का अभी तक न तो "प्राग्वाट" का और न "पौरपट्ट" का कोई उल्लेख मिलता है। वास्तव में प्राग्वाट > पौरपट्ट से विकसित होकर पोरवाड, परवाड, परवाल, परवार शब्द निकला है । मूर्तिलेखो में जो वि. सं. 1089 से लेकर वि. सं. 1789 तक के उपलब्ध होते है, उनमें परवार जाति के लिए 'पोरपट्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। प्राग्वाट और पौरपट्ट एक ही कहा गया है। "
  श्री अगरचन्द जी नाहटा के मत से- 

"वर्तमान गोडवाड़, सिरोही राज्य के भाग का नाम कभी प्राग्वाट प्रदेश रहा था ।"
श्वे० मुनि जिनविजयजी के मतानुसार -
'अर्बुद पर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक के लम्बे प्रान्त का नाम पहले प्राग्वाट प्रदेश था।'
स्व.श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के विचारानुसार-
"पुर" शब्द से "पुरवाड़" और "पोरवाड़" शब्दों की उत्पत्ति हुई है । "पुर" शब्द मेवाड़ के "पुर" जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिये प्राग्वाट भी लिखा मिलता है। "
श्री ओझा जी “राजपूताने का इतिहास" की पहली जिल्द में लिखते हैं -
“करनवेल (जबलपुर के निकट) के एक शिलालेख में प्रसङ्गवशात् मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल, बेरिसिंह और विजयसिंह का वर्णन आया है, जिसमें उनको "प्राग्वाट" का राजा कहा गया है। अतएव  "प्राग्वाट" मेवाड़ का ही दूसरा नाम होना चाहिए। संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में पोरवाड़ महाजनों के लिये “प्राग्वाट" नाम का प्रयोग मिलता है और वे लोग अपना निवास मेवाड़ के "पुर" नामक कस्बे से बतलाते हैं, जिससे सम्भव है कि “प्राग्वाट" देश के नाम पर वे अपने को प्राग्वाट वंशी कहते रहे हों।"
श्री डॉ. विलास आदिनाथ संघवे, प्रोफेसर राजाराम कालेज, कोल्हापुर ने “जैन कम्युनिटी : ए सोसल सर्वे" मे 84जातियों के उल्लेख के प्रसंग में "परवार" जाति का निकास "पारानगर" से माना है । उस सूची से यह तो नहीं मालूम पड़ता है कि यह "पारानगर" कहाँ है ? फिर भी इस नगर के उल्लेख से ऐसा मालूम होता है कि या तो "पोरवा” नगर को "पारानगर" कहा  है या फिर "पुरमण्डल" को  पारानगर पद से सम्बोधित किया गया है। जो कुछ भी हो, इतना तो सुनिश्चित है कि इस अन्वय का निकास "प्राग्वाट" प्रदेश से और उससे लगे हुए पोरबन्दर तक के प्रदेश से ही हुआ है। इस स्थान को पोरबन्दर कहने का कारण भी शायद यही है ।वर्तमान में “मूल” के अर्थ में “मूर" या "शाख" शब्द प्रचलित है । अब देखना यह है कि पौरपाट (परवार) अन्वय में जो 144 या 145 मूल प्रसिद्ध हैं, वे क्या है ? पौरपाट (परवार) अन्वय का निकास मूल में मेवाड़ और गुजरात के उस भाग से हुआ है जो "प्राग्वाट" प्रदेश कहा जाता है। दूसरी इससे यह बात भी फलित होती है कि जिस ग्राम, कस्बा या नगर से आकर जो कुटुम्ब इस अन्वय में दीक्षित हुए हैं उनका मूल" वही स्वीकार कर लिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि महाराष्ट्र में जिस अर्थ में "कर" शब्द का प्रयोग किया जता है, उसी अर्थ में पौरपाट अन्वय में “मूल" शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा गोत्र के अन्तर्गत होने से उन्हें शाख भी कहा जाता है।ये बारह गोत्रों के 144 मूर (मूल) या शाखा हैं।
        जैसा कि पहले बताया है कि  इस अन्वय प्रत्येक गोत्र के अन्तर्गत जो 12-12 मूल हैं वे ग्रामों के नामों के आधार पर ही हैं। अर्थात् जिस ग्राम के रहवासी जिस कुटुम्ब ने इस अन्वय को स्वीकार किया उस कुटुम्ब का वही मूल हो गया। इसकी पुष्टि में हम यहाँ पर एक तुलनात्मक सूची दे रहे हैं। वह इस प्रकार है-
1. ईडरीमूल ईडरशहर में रहने वालों का मूल ईडर है 
2. रक (ख) या मूल रखयाल ग्राम (सौराष्ट्र) में रहने वालों का मूल रखयाल है ।
3. नारद मूल मारवाड़ के मेड़ता जिले के पार्श्वनाथ मन्दिर में नारदपुरी का उल्लेख है।
4. कठिया मूल-काठियाबाड़ के निवासियों के इस अन्वय में सम्मिलित होने पर उनका मूल 'कठिया' प्रसिद्ध हुआ।
5. दुगायत मूल-दो नदियों का संगम स्थान (गुजरात), उसके आस-पास रहने वालों का मूल दुगायत हुआ।
6. पद्मावत मूल -इस शहर के रहने वाले।
7. पद्मावती मूल-पद्मावती शहर (गुजरात) में रहने वाले । 8.बेला-बेला स्टेशन (सौराष्ट्र), डिम या डिम्मका अर्थ छोटा होता है। बेलाडिम अर्थात् बेला नाम का छोटा ग्राम |
9. बहुरिया मूल-बहेरिया रोड स्टेशन है। बहेरिया में रहने वाले । 10.मांडू-माडलगढ़का संक्षिप्त नाम मांडू है, के रहने वाले ।
11. कुआ-गुजरात में एक ग्राम का नाम कुआ या पाटना कुआ है। एक दूसरा गाँव रानकुआ भी है।
12. कठा-कठासा स्टेशन (यहाँ के रहने वाले )
13.पटवा मूल-पटवारा स्टेशन के रहने वाले
14. लोटा मूल-लोटासा स्टेशन के रहने वाले
15. छना मूल-छना खड़ा स्टेशन के रहने वाले
16.बाला मूल-बाला रोड स्टेशन, बाला ग्राम या  बल्लापुर ग्राम के रहने वाले
17. डेरिया मूल-डेरोन स्टेशन
18. डंडिया मूल-डंडिया एक खेड़े का नाम है, उस पर से इस नाम से प्रसिद्ध
19. देदा मूल-दुद्दा स्टेशन
20. किड मूल-किडिया नाम का नगर है
21. धना मूल-धनाखड़ा स्टेशन, इस ग्राम के रहने वाले
22. उजया मूल-उजेडिया ग्राम रहने वाले
23.. किड मूल-किडिमा नगर के रहने वाले
24.सर्व छोला मूल छोला स्टेशन |
25.गोदू मूल-गोदो ग्राम के रहने वाले
26.तका मूल -टाका टुक्का ग्राम के
27.बंसी मूल-बंसी पहाड़पुर स्टेशन में रहने वाले ।