मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

अग्रवाल जाति


 अग्रोतक अथवा अग्रोदक अगरोहा का प्राचीन नाम है। अगरोहा पंजाब प्रान्त के हिसार जिले के फतेहाबाद तहसील में देहली-सिरसा रोड पर स्थित एक छोटा सा कस्बा है, इसको अग्रवाल जाति अपने पूर्वजों का निवास स्थान मानती है। विक्रम संवत् 1632 में लिखी 'जंबूस्वामी चरितम्' के लेखक ने अपने संरक्षक को 'अग्रोतक वंश के गर्ग गोत्र' का बताया है और वि.सं.1881 की पभोसा पहाड़ की धर्मशाला की प्रशस्ति में भी उसके निर्माता का 'अग्रोतकान्वय गोयल गोत्र' का बताकर परिचय दिया है जिससे यह मालूम होता है कि अकबर के समय तक अग्रवाल शब्द  प्रचलन में नहीं आया था और 19वीं शताब्दी में जब अग्रवाल शब्द का व्यवहार शुरू होगया,अग्रवाल लोगों को अपने 'अग्रोतकान्वय' या 'अग्रोतक' निवासियों के वंशज होने का पता था।
मोशियो प्रज़लुस्की ने बुलेटिन ऑफ द स्कूल ऑफ ओरियन्टल स्टडीज में अपने एक लेख में अगरोहा की पहचान अग्रोतक या अग्रोदक के रूप में की है। उनके इस कथन की पुष्टि अगरोहा की खुदाई में मिली मुद्राओं से भी होती है। 'अग्रोदक' एक यौगिक शब्द है जिसका विग्रह 'अग्र-उदक' होगा। उदक शब्द जल अथवा तालाब का द्योतक है। इसलिए अग्रोदक का तात्पर्य 'अग्र का तालाब' अथवा 'अग्र से सम्बद्ध तालाब' हुआ। सिरसा से अगरोहा और करनाल-थानेश्वर तक का सौ मील का इलाका अपने कुण्ड या तालाबों के लिए प्रसिद्ध रहा है। इसलिए इस नाम से यह मालूम होता है  कि वहाँ  कोई तालाब रहा है और हिसार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1918 के अनुसार इस इलाके में एक प्राचीन तालाब के चिह्न 310 बीघे के क्षेत्रफल में मिले थे इसलिए यह कोरी कल्पना नहीं है।
 1938 में भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से हुई अगरोहे के कुछ टीलों की खुदाई में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की जो ताम्र मुद्राएं प्राप्त हुई हैं,जिनसे मालूम होता है कि वहां 'आग्रेय' नामक एक जनपद था।अग्रवाल जाति के इतिहास के सम्बन्ध में अब तक कई छोटी-बड़ी पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं जिनमें दन्तकथाओं और भाटों द्वारा बताई गईं किंवदन्तियों तथा पौराणिक कथाओं के हवाले से यह बताया गया है कि 'अग्रवाल जाति के आदि-पुरुष अग्रसेन नाम के एक नृपति थे और उनके 18 पुत्रों के नाम से 18 गोत्र प्रचलित हुए हैं। लेकिन इन महाराज अग्रसेन के होने के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण या साक्ष्य नहीं मिलता इसलिए यह कोई मिथकीय चरित्र मालूम होते हैं। अग्रवाल जाति का इतिहास लिखने वाले विद्वान लेखक परमेश्वरी लाल गुप्त की भी यही मान्यता है। उनके अनुसार ‌‌ भी 'अग्रसेन' नाम के कोई ऐतिहासिक नृपति नहीं हुए हैं जिनसे अग्रवालों की उत्पत्ति का सम्बन्ध जोड़ा जा सके।यह बात भले ही अटपटी लगे लेकिन यह बात सच है कि अग्रसेन के सम्बन्ध में प्रचलित किंवदन्तियों और कथाओं को पुष्ट करने वाला कोई ऐतिहासिक प्रमाण अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। अन्य वैश्य जातियों के समान ही अग्रवाल जाति के मूल में भी 'गण' और 'श्रेणी' रही है।  इसी से 'अग्रश्रेणी' और उससे अग्रसेन की कल्पना को बल मिला प्रतीत होता है।'अग्रवाल' शब्द का व्यवहार मुस्लिम काल में शुरू हुआ है। इसके पहले इस शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अग्रवाल' शब्द का तात्पर्य 'अग्र' के निवासी है। अकेली अग्रवाल जाति ऐसी नहीं है जिसमें 'वाल' प्रत्यय का प्रयोग हुआ हो। पालीवाल, ओसवाल, खण्डेलवाल, वर्णवाल आदि सभी 'वाल' प्रत्यय वाली जातियों के नाम उनके मूल निवासस्थान के बोधक हैं। कदाचित् आग्रेय गण में जिन 18 प्रधान कुलों का हाथ रहा या जिन मित्र संघों से मिलकर यह मित्र गण (काॅनफेडरेशन)बना और अग्रश्रेणी के रूप में उनमें , जिन 18 कुलों का निवास रहा हो, उन्हीं के द्योतक ये गोत्र हों।क्योंकि यदि एक ही पिता के 18 पुत्र होते और उन्हीं से यह 18 गोत्र बने होते तो एक ही पिता के वंशजों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध की अनुमति क्योंकर होती? इसलिए यह मान्यता उचित नहीं है।
       'ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ एन. डब्ल्यू. पी. एंड अवध' के लेखक डब्ल्यू.क्रुक और 'अग्रवाल उत्पत्ति ' के लेखक रामचंद्र अग्रवाल (सन् 1890) का मत है कि जो लोग अगर (अगरु) यानी चंदन के बुरादे ,जो हवन में और सुगंध के रूप में व्यापक रूप से उपयोग होता था-के व्यवसाय में संलग्न रहे,वे कालांतर में अगरवाल कहलाए। हालांकि यह कल्पना असंगत मालूम नहीं होती फिर भी अधिकांश लोग ऐसा नहीं मानते। लेकिन मुंबई के कुछ गुजराती अग्रवाल स्वयं को अग्रोहा का मूलनिवासी न मानकर 'आगर' (मालवा)का मूल निवासी मानते हैं और अग्रवाल शब्द को 'आगरवाल' से निष्पन्न मानते हैं।
              आग्रेय गण काफी प्राचीन और ऐतिहासिक गण रहा है। महाभारत के वनपर्व में आए एक उल्लेख में कर्ण ने अपने दिग्विजय अभियान में जिन राज्यों को पराजित किया था, उसमें आग्रेय नामक गण भी था,जो भद्र गण से आगे रोहितक और मालव गणों के बीच में स्थित था।भद्र,रोहितक (रोहतक) और मालव पंजाब के प्रसिद्ध गण रहे हैं ।यवन लेखकों (330 ईसापूर्व) के विवरणों में 'अग्गलसोई' नामक जिस समृद्धशाली गणतंत्र का उल्लेख आया है जो वास्तव में 'आग्रेय श्रेणी' शब्द का ही प्राकृत रूप है। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि (5वीं ईसापूर्व) ने भी 'अष्टाध्यायी' में 'अग्र' नामक जनसमुदाय का उल्लेख किया है।इन प्राचीन गण या श्रेणी में कोई वंशानुगत या निर्वाचित शासक नहीं होता था और समस्त जनपद को उसका शासक समझा जाता था।आग्रेय गण भी एक ऐसी ही श्रेणी था।खुदाई में प्राप्त मुद्राओं से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। लेकिन गणतंत्रात्मक व्यवस्था का धीरे धीरे लोप होने और एकतंत्रीय शासन व्यवस्था के उदय होने पर 'अग्रश्रेणी' से अग्रसेन की कल्पना कर उसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व प्रदान करने के लिए भाटों द्वारा उनकी वंशावली की कल्पना असंभव नहीं लगती।'अग्र' गण के लोग शस्त्र संचालन में भी निपुण थे।
            नागों के प्रति अग्रवाल लोगों में विशेष आदर भाव रहा है।वे उनकी विशेष अवसरों पर पूजा करते हैं क्योंकि वे नाग जाति को अपने मातृ पक्ष से सम्बद्ध मानते हैं। नागों से आशय नाग या सर्प गणचिन्ह (टोटेम) वाली एक आर्येतर जाति से है जो अतीत में काफी शक्तिशाली रही है और जिसका साम्राज्य बहुत विशाल और समृद्ध रहा है। कश्मीर से लेकर श्रीलंका और अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक नाग सभ्यता के चिन्ह फैले हुए हैं।नाग जाति की आर्यों के साथ काफी घनिष्ठता रही है।राजा जनमेजय के अतिरिक्त किसी अन्य आर्य राजा से उनका भारी संघर्ष नहीं हुआ।नाग जाति और आर्य जातियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने के कई वृतांत पुराणों में मिलते हैं। दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर में नाग जाति का वर्चस्व रहा है।बाद में विदिशा, मथुरा, पद्मावती,कांतिपुरी नाग जातियों के शक्ति केंद्र रहे हैं। नागों की शासन प्रणाली संघात्मक थी। अग्रोहा से खुदाई में मिली सामग्री से वहां कुषाण शासकों  का आधिपत्य  होने के बारे में संकेत मिलते हैं।नाग जाति के भारशिव राजाओं ने अग्रोहा से कुषाणों को  खदेड़ बाहर किया था और वहां के लोगों को कुषाणों के अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाई थी, इसलिए वहां के लोगों में नाग जाति के प्रति कृतज्ञता का भाव  बहुत स्वाभाविक है।
श्री काशी प्रसाद जायसवाल ने अष्टाध्यायी के आधार पर तत्कालीन बहुत से गण राज्यों की सत्ता का उल्लेख किया है। इन गण राज्यों का शासन प्रायः श्रेणितन्त्र होता था। गण सभा में विविध कुलों के प्रतिनिधि एकत्र होते थे और राज्य कार्य का संचालन करते थे। ये प्रतिनिधि  निर्वाचित नहीं होते थे बल्कि प्रत्येक कुल का नेतृत्व उसका मुखिया यानी गोत्रापत्य या वृद्ध व्यक्ति करता था। (आज भी पंचायतों में यही रूप चला आ रहा है, कुल का मुखिया ही प्रतिनिधि समझा जाता है।) इसीलिए कुल में एक ही गोत्रापत्य होता था। उस कुलके अन्य सदस्य युवापत्य कहलाते थे। प्रत्येक कुल की विशेष संज्ञा होती थी, जैसे गर्ग द्वारा स्थापित कुल के गोत्रापत्य व वृद्ध की संज्ञा गार्ग्य थी और उस कुल के सब लोग गार्ग्यायण कहलाते थे। गोत्र से पाणिनि का यही अभिप्राय रहा है।अग्रवाल जाति का विकास 'आग्रेय' नामक गण से हुआ है। इसलिए इस जाति में गोत्र का तात्पर्य वही रहा होगा, जो पाणिनि ने व्यक्त किया है। इसलिए अग्रवाल जाति में जो धारणा गोत्रों के सम्बन्ध में प्रचलित है वह मिथ्या है। अग्रवाल जाति में जो साढ़े 17 या 18 गोत्र माने जाते हैं, वे आग्रेय गण में  18 प्रधान कुलों  या जिन मित्र संघों के सहयोग से वह मित्रपद (काॅनफेडरेशन)बना था-के द्योतक हैं। अग्रश्रेणि के रूप में उसमें जिन 18 कुलों का निवास रहा कदाचित् उन्हीं के प्रतीक ये गोत्र हैं। जिनकी बाद में मिताक्षरा विधि के उनकी अनुकूल कल्पना कर ली गई और उसीके आधार पर अग्रवालों के गोत्रों के पुरोहितों से होने की किंवदन्ती चल पड़ी।  यदि  मिताक्षरा हिंदू विधि के अनुसार अग्रवालों के सभी गोत्र हैं तो वे सभी गोत्र ब्राह्मणों से मिलने चाहिये क्योंकि उनका विकास विभिन्न पुरोहितों से हुआ होगा। लेकिन  बड़ी खींचतान के बाद भी अग्रवालों के केवल चार गोत्र ब्राह्मण गोत्रों से मिल पाते है। इससे स्पष्ट है अग्रवालों के गोत्र ब्राह्मण पुरोहितों के नहीं हैं। जहां तक अग्रसेन के पुत्रों से अग्रवालों के गोत्रों के स्थापित होने का प्रश्न है तो यहां भी विचारणीय है कि उनके कितने पुत्र थे। क्योंकि इस बात को लेकर भी गंभीर मतभेद हैं।कई पुस्तकों में अग्रसेन की पुत्रों की संख्या 54 बताई गई है लेकिन गोत्र तो 17 या 18 ही हैं इसलिए यह मान्यता भी गलत मालूम होती है।
अग्रवालों के गोत्रों के बारे में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विवरण दिए हैं जिनका यहां आगे उल्लेख किया गया है -
'हिंदू ट्राइब्स एंड कास्ट एज़ रिप्रिजेंटेड इन बनारस' में शेरिंग महोदय ने निम्न गोत्र बताए हैं- 1-गर्ग,2-गोभिल,3-गरवाल,4-वात्सिल,5-कासिल,6-सिंहल,7-मंगल,8-भदल,9-दिंगल,10-एरण,11-तायल,12-टेरण,13-ढिंगल,14-तित्तिल,15-मित्तल,16-तुंदल,17-गोयल,18-विंदल।

'द पीपल ऑफ इंडिया' में रिसले ने जो गोत्र सूची दी है वह निम्नानुसार हैं- -1-गर्ग,2-गोभिल,3-गावाल,4-वात्सिल,5-कासिल,6-सिंहल,7-मंगल,8-भदल,9-तिंगल,10-ऐरण,11-तायल,12-टेरण,13-ढिंगल,14-तित्तल,15-मित्तल,16-तुंदल,17-गोयल,18-गोयन

'ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ एन. डब्ल्यू.पी. एंड अवध' में डब्ल्यू.क्रुक के उल्लेखानुसार गोत्र इस प्रकार हैं -
1-गर्ग,2-गोभिल,3-गौतम,4-वासल,5-कौशिक,6-सैंगल,7-मुद्गल,8-जैमिनि,9-तैत्तरेय,10-औरण,11-धान्याश,12-ढेलन,13-कौशिक,14-ताण्डेय,15-मैत्रेय,16-कश्यप,17-माण्डव्य,18-नागेंद्र।
'अग्रवाल जाति का प्रामाणिक इतिहास' के लेखक श्री गुलाब चंद ऐरण के अनुसार -
1-गर्ग,2-गोयल,3-कछल,4-कांसिल,5-बिंदल,6-ढालन,7-सिंगल,8-जिंदल,9-मीतल,10-तिंगल,11-तायल,12-वांसल,13-कांसल/(टेरन),14-तांगल,15-मंगल,16-ऐरन,17-मधुकल,18-गोइन।

श्रीविष्णु अग्रसेन वंश पुराण के अनुसार -
1-गर्ग,2-गोयल,3-कच्छल,4-मंगल,5-विंदल,6-ढालन,7-सिंगल,8-जिंदल,9-मित्तल,10-तुंगल,11-कांसल,12-ताइल,13-वांसल,14-नागल,15-मुग्दल,16-ढरन,17-ऐरन,18-गवन।

काका हाथरसी (प्रभु दास गर्ग) ने अग्रवाल जाति के गोत्रों का पद्यात्मक विवरण इस प्रकार दिया है -
वैश्य जाति में प्रतिष्ठित अग्रवाल का वर्ग,
 गोत्र अठारह में प्रथम नोट कीजिए गर्ग,
नोट कीजिए गर्ग कि कुच्छल, तायल, तिंगल,
 मंगल, मधुकुल, ऐरण, गोयन, बिंदल, जिंदल,
कहीं-कहीं है नागल, धारण, भंदल, कंसल,
अधिक मिलेंगे मित्तल, गोयल, सिंहल, बंसल,
 यह सब थे अग्रसेन के पुत्र दुलारे,
 अनेक भारतवासी उनके वंशज हैं, वे हैं पूज्य हमारे 

अग्रवाल समाज प्राचीन समय में जैन धर्मावलंबी रहा है लेकिन राजनीतिक परिस्थितिवश धीरे धीरे वे वैष्णव मतावलंबी हो गए। लेकिन आज भी बड़ी संख्या में अग्रवाल जैन धर्मानुयायी हैं।


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