सोमवार, 12 जून 2023

विवाह और चुनौतियां


 यदि आपके नौनिहाल वय:संधि की दहलीज पार कर रहे हैं और किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश कर रहे हैं तो यही वह समय है जब आपको अपने बच्चों को लेकर ज्यादा सचेत और सजग रहने की जरूरत है। बच्चों के लिए उनकी शालेय और व्यावसायिक शिक्षा जितनी ज़रूरी है उतना ही आवश्यक उनमें नैतिक मूल्य बोध और समझ पैदा करना है जिसके जरिए आप उनमें उचित -अनुचित,,ग्राह्य और त्याज्य का त्वरित निर्णय करने की नीर-क्षीर दृष्टि  उनमें विकसित कर सकें और इसमें आपका स्वयं का आचरण उनके सामने एक जीवंत उदाहरण के रूप में होना चाहिए। लेकिन बिडंबना यह है कि यहीं पर बड़ी चूक हो जाती है। चूंकि हममें से अधिकांश का सारा फोकस किसी भी तरह दाम कमाने और भौतिक सुख सुविधाएं जुटाने पर होता है जिसके लिए चाहे अनचाहे और कदम कदम पर समझौते  करने पड़ते हैं इसलिए जब हमारे स्वयं के जीवन में कोई आदर्श और नैतिक आकर्षण नहीं रहता तो फिर बच्चे भी इसी व्यावहारिक नजरिए से दुनिया को देखते हैं। उनकी दृष्टि में व्यावसायिक सफलता और उससे हासिल होने वाले अकूत धन का आकर्षण सबसे प्रबल होता है।जो भी चीज उनकी इस लक्ष्य पूर्ति में जिस अनुपात में  सहायक होती है वह उन्हें उतनी ही प्रिय होती है। उनकी दृष्टि में पैसा प्राथमिक और शेष सारी चीजें द्वितीयक और गौण हो जाती हैं। ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि अपने जीवन साथी के चुनाव को लेकर उनकी धारणा उनकी मन: स्थिति के अनुरूप ही होगी । और चूंकि  उनके लिए उनका  स्टेटस उनके जाॅब और सैलरी से निर्धारित होता है। इसीलिए जाति पांति,धर्म पंथ उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखते। लेकिन आपका स्टेटस आप जिस समाज का हिस्सा है उसके मानकों और उनकी परंपराओं के पृष्ठ पोषण से समाज के भीतर मिलने वाले बहुमान और उससे होने वाले श्रेष्ठता-बोध से निर्मित होता है। इसीलिए जब आप अपने बच्चों द्वारा सामाजिक मर्यादाओं का विचलन होता देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से आपका सम्मान, स्वाभिमान आहत होता है। अपने बच्चों को लेकर आपके द्वारा पाली गईं अपेक्षाएं टूटने पर आपका मन और मान दोनों लहूलुहान हो जाते हैं लेकिन आपके सामने हाथ मलने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता। गहराई से सोचने पर आप स्वयं को ही दोषी पाएंगे। शुरू में तो अपने बच्चों के निर्णय के साथ उनके अभिभावकों की सहमति रहती है लेकिन बाद में वह उनकी विवशता बन जाती है। खुदमुख्तार बने कमाऊ बच्चे अपने अभिभावक का कहना नहीं मानते बल्कि अभिभावकों को ही बच्चों का कहना मानना पड़ता है। बच्चों के विवाह की सही उम्र सामान्यतः 25/26 वर्ष मानी जाती है। सही उम्र में बच्चों का विवाह करना अनेक समस्याओं का एकमुश्त समाधान है। लेकिन उच्च शिक्षित होने की दशा में पढ़ाई, कैरियर बनाने और अपने कार्यक्षेत्र में स्थापित होने की सामाजिक रूप से आत्मघाती साबित हो रही लालसा का परिणाम अन्तर्जातीय और सामाजिक रूप से बेमेल शादियां के रूप सामने आ रहा है। विजातीय समाज में लड़कियों के विवाह के मामलों में बढ़ोतरी की वजह से लिंगानुपात की चुनौती से जूझ रही वरहिया जैन समाज में विवाह की देहली सीमा पर खड़े युवाओं की तादाद में खासी बढ़ोतरी हुई है।इस पूरे प्रकरण का सबसे दु:खद पहलू यह है कि हमारी उच्च शिक्षित बच्चियां इतर समाज के घरों की रौनक बनकर रोशनी बिखेर रही हैं और हमें अपने विवाह की बाट जोहते बच्चों के लिए मैनेज करके हीनतर सामाजिक स्थिति वाली,कम पढ़ी-लिखी,कमतर लड़कियां बहू के रूप में स्वीकार करने को विवश होना पड़ रहा है।यह आज की सबसे बड़ी विडंबना है।एक बात यहां और विचार करने योग्य है कि इतर समाज में अपनी हैसियत से ज्यादा दहेज देने के बजाय  सजातीय समाज के लड़के को उतना दहेज देकर अपने बराबर में खड़ा करने की चेष्टा क्यों नहीं की जाती? (यहां दहेज का समर्थन करना मंतव्य नहीं है) यह दु:खद है कि बदलते समय में शादी पुनीत संस्कार न रहकर शानो-शौकत और रईसी का मुजाहिरा बनती जा रही है 🤔