सोमवार, 9 जनवरी 2023

परवार जैन


 
परवार जाति के पूर्वज परमार क्षत्रियों के वंशज हैं, यह तथ्य इतिहास सिद्ध है। इसके लिए परमार, पंवार, पुरवार, पोरवार, पोरवाड़, पोरवाल, पद्मावती पोरवाड़ या जांगड़ा पोरवाल आदि अनेक नामान्तर प्रचलित हैं। ये भिन्न भिन्न प्रदेशों में निवास करते हैं ।
         परवार जाति में बारह गोत्र मान्य है और प्रत्येक गोत्र में बारह-बारह मूर है, फलतः कुल १४४ मूर है ।(मूर शब्द संस्कृत 'मूल' का अपभ्रंश है।) इनके अलावा १४५वाँ मूर भी है, जिसका नाम 'सिंहबाघ' अथवा 'सदाबदा' कहा जाता है । यह अन्तिम गोत्र का मूर माना जाता है। कहा जाता है कि जिस व्यक्ति का परिवार देशान्तर चला गया हो अथवा कालान्तर में अपना मूर-गोत्र भूल गया हो तो वह जातीय पंच उसे अन्तिम गोत्र और तेरहवाँ मूर प्रदान कर देते थे और इसी आधार पर विवाहादि कार्य पंच सम्पन्न करा देते थे ।
         'मूर' शब्द मूल स्थान का वाचक है और मूल से तात्पर्य मूल निवास स्थान से है । जो व्यक्ति देशान्तर में निवास करता है उसका परिचय लोग मूल निवास स्थान से आज भी लेते हैं। परवार जाति के प्रत्येक व्यक्ति के गोत्र के साथ 'मूर' भी पृथक् पृथक् पाया जाता है। परवार जाति का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका कोई गोत्र और मूर न हो। इसका यह अर्थ हुआ कि ये वर्तमान में भले ही मध्यप्रदेश में निवास करते हैं तो भी इनका मूल निवास कहीं अन्यत्र रहा है और ये किसी राजनीतिक और धार्मिक कारण से अपने मूल निवास को छोड़कर मध्यप्रदेश और उसके आसपास आकर बसे हैं । जो जिस ग्राम के पूर्व निवासी हैं उसी ग्राम को वे अपना मूर (मूल) आज भी मानते हैं, भले ही वे इस बात को आज न जानते हों, परन्तु उन्हें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिये।
          गुजरात प्रान्त में अनेक ग्राम इस प्रकार पाये जाते हैं जिनसे यह मान्यता स्पष्ट होती है कि परवार जाति के मूर इन्हीं ग्राम-नामों पर हैं- जैसे ईडर के निवासी 'ईडरीमूर', रखियाल ग्राम के निवासी ' रखयामूर', नारदपुरी से 'नारद', दुद्दो से 'देदामूर', लोटासन से 'लोटामूर', कठासा से 'कठामूर', पटवारा से 'पटवामूर', बहेरियारोड से 'बहेरियामूर' आदि । इस प्रकार ग्रामों और मूरों का परस्पर संबंध स्पष्ट है। तात्कालिक राजनीतिक, धार्मिक कारणों और प्राकृतिक विपदाओं के कारण परवार जाति के लोगों को अपने धर्म एवं मूलसंघ की रक्षा के लिए गुजरात प्रदेश छोड़कर मध्यप्रदेश मे आकर बसना पड़ा था।  यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन परमार क्षत्रियों ने तत्कालीन गुजरात प्रदेश के श्वेताम्बर धर्म के अनुयायी राजाओं के दबाव से दि० जैनधर्म छोड़कर श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया. उन्हें उन राज्यों से निष्कासित नही किया गया। वे श्वेताम्बर हो गये, इसलिए श्वेताम्बरों में भी परमार पाये जाते हैं ।
            गुजरात प्रान्त छोड़कर जब मूलसंघ के अनुयायी परवार जाति के लोगों को अपने धर्म की रक्षा हेतु देशान्तर जाना पड़ा तो उस समय मालवा, उज्जैन, चंदेरी, सिरौंज, टीकमगढ़, पन्ना और छतरपुर आदि स्थानों में परमार / बुन्देला तथा अन्य क्षत्रिय वंशों का शासन था । इनमें अनेक राज्य / रियासतें जैनधर्म की अनुयायी थी या उससे प्रभावित थीं। अतः वहाँ परवारों को आश्रय मिला। चूंकि परवार जाति के लोग उन क्षेत्रों में पहिले से निवासरत थे इसलिए आगत लोगों को यहां बसना सुविधाजनक लगा।परवार समाज यहाँ आज भी बहुतायत में पाया जाता है। छतरपुर बुंदेलखंड में एक प्रतिष्ठित राज्य था। यहाँ के शासक बुन्देला परमार क्षत्रिय थे तथा जैनधर्म से पूर्ण प्रभावित थे | उनके राज्य में जैनियों की बड़ी प्रतिष्ठा थी ।उस समय बुन्देलखण्ड के क्षत्रिय जैनधर्म के अनुयायी भी थे या उसके अनुकूल थे और इसलिए भी गुजरात से आये उन दि. जैन भाइयों को उन्होंने अपने-अपने राज्य में आश्रय दिया था। इसी तरह उज्जैन, चंदेरी सिरौंज, ओरछा आदि राज्यों में भी उनको आश्रय मिला । अतएव इन अंचलों में परवार समाज की जनसंख्या आज भी बहुतायत में पाई जाती है। स्मरण रहे कि मूल आम्नायी दि. जैन परवार, गोला पूर्व, गोलालारे तथा गोलसिंघारे -इन जैन जातियों का यहाँ पहिले से निवास था, इसलिए  गुजरात छोड़कर यहाँ बसने का निर्णय उचित और स्वाभाविक था ।
    वैवाहिक सम्बन्ध :
           परवार जाति में परस्पर में वैवाहिक सम्बधों में गोत्र तो बचाया ही जाता है, साथ ही मूरों को भी बचाया जाता है। अपने मूर के साथ ही अपने  माता और पिता की आठ पीढ़ियों या चार पीढ़ियों का मूर बचाकर ही सम्बन्ध किया जाता रहा है और इसी आधार पर  'अठसखा' (अष्टशाखा) और चौसखा कहलाए। चौसखा  चार शाखाओं का बचाव करके विवाह करते थे,  और दोसखा दो शाखाओं का बचाव करके विवाह करते थे। वर्तमान में अब केवल चार या दो शाखाओं का ही विचार किया जाता है और ऐसा प्रायः सभी समुदायों में देखा जा रहा है।
     जिन पट्टावलियों, शिलालेखों अथवा प्रतिमालेखों में 'अष्टशाखा' या 'चौसखा' आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, उसमें परवार शब्द का उल्लेख न भी हो अथवा अठसखा और चौसखा के साथ पोरवाल या पोरवाड़ जाति का उल्लेख हो तो वे सब भी परवार जाति के ही नामांतर माने जाने चाहिये ।
      परवार जाति में जो बारह गोत्र मान्य है, उनका कोई इतिहास नहीं मिलता । किन्तु इसी प्रकार के कई गोत्र अग्रवालों में तथा गहोई जाति में (जो वर्तमान में जैन नहीं हैं) में भी पाये जाते हैं अथवा इनसे मिलते-जुलते शब्दों वाले गोत्र पाये जाते हैं। 'कच्छी बीसा ओसवाल जैन संघ' पुस्तिका में इस समाज के छह गोत्र तथा 88 अटक (उपगोत्र)लिखे हैं | इनमे 'परमार' भी एक गोत्र है। वर्तमान मे 35 अटक है, जिनमें पुरवाज सोरठिया, लोटा सुरखिया आदि है, जो परवार जाति के मूरों से मिलते हैं | सम्भव है कि इन मूर वालों ने श्वेताम्बर धर्म स्वीकार कर लिया हो । उक्त उदाहरणों से यह बात सिद्ध होती है कि कालान्तर में एक गोत्र के भीतर भी अनेक जातियाँ बन गई हैं। साथ ही धर्म का पालन करना व्यक्तिगत आस्था के आधार पर ही रहा है। इसीलिए अग्रवाल, खंडेलवाल, पोरवाड़, पोरवाल, गहोई, जैसवाल तथा नेमा - इन जातियों में जैन धर्मानुयायी तथा वैष्णव धर्म के अनुयायी भी पाये जाते हैं। यद्यपि गहोई जाति में  आज जैन धर्मानुयायी नहीं हैं, परन्तु ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मे उनके द्वारा प्रतिष्ठित दि. जैन प्रतिमायें दि.जैन तीर्थ क्षेत्र अहार ( टीकमगढ़, म.प्र. ) के संग्रहालय में हैं। अहार क्षेत्र की मूल नायक शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमा भी 'गहोई वंश' के द्वारा प्रतिष्ठित है । उसमें इन्हें गृहपति अन्वय के नाम से उल्लेखित किया गया है | गृहपति शब्द का प्राकृत भाषा में 'गिहवई' और 'गहवई' रूप बनता है और बोल-चाल की भाषा में वह 'गहोई' शब्द  के रूप में प्रचलित हो गया है। परवारों और गहोइयों के नौ गोत्र आपस में मिलते हैं।गहोईयों में एक आंकना (मूर) सरावगी भी है जो परवार और गहोई जातियों के बीच निकटता दर्शाता है।नन्दिसंघ की पट्टावली से मालूम होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र वि. सं. 962 में नन्दिसंघ के पट्ट पर बैठे थे ।पट्टावलियों से यह भी पता चलता है कि वि. सं. 4 में आचार्य भद्रबाहु द्वितीय से मूलसंघ प्रारम्भ हुआ। उनकी शिष्य परम्परा मे वि. सं. 142 में लोहाचार्य हुए । शिष्य परम्परा की दृष्टि से वह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। पहला पूर्वपट्ट कहलाया, जो मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और दूसरा उत्तरपट्ट कहलाया।पं. नाथूराम 'प्रेमी' के शब्दों में 'पुरवाट्', 'प्राग्वाट्' ये नाम परवार जाति के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। यह भारतीय इतिहास की जाति विषयक एक विचित्रता कही जा सकती है कि किसी समय में क्षत्रिय तथा श्रेष्ठिवर्ग (वैश्य कुल) में विवाह सम्बन्ध अनुज्ञेय थे। 'पुरातन प्रबन्ध' में नाडोल के लक्ष्मण चौहान का विवाह एक श्रेष्ठी की पुत्री से होना लिखा है। अग्रवाल, माहेश्वरी, जैसवाल, खण्डेलवाल और ओसवालों का उद्भव क्षत्रियों से बताया जाता है। इनको अहिंसक होने और वाणिज्य व्यापार संलग्न रहने के कारण भले ही वैश्य कहा जाने लगा हो लेकिन आज भी इनके रक्त में स्वाभिमान झलकता है।
      उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "पोरपाट" का सर्व प्रथम उल्लेख अहार जी के मूर्तिलेखों में मिलता है। पौरपट्ट या परवार जाति का 16वीं-17वीं शताब्दी तक  गुजरात से लगातार सम्पर्क बना रहा है। परवार जाति के लोगों का रूप-रंग,रहन-सहन आदि से काफी हद तक उनका मेल खाता है। परवार जाति में 12 गोत्र जिस प्रकार के पाये जाते हैं, उसी से मिलते-जुलते जुझोतिया ब्राह्मण, अग्रवाल, गहोई व अन्य वैश्यों में भी पाए जाते है। प्रेमी जी की इस मान्यता में वजन मालूम होता है कि वैश्यों की लगभग सभी जातियाँ राजस्थान से निकली है । 'पद्मावती पोरवाल' परवारों की ही एक शाखा मानी गई है। जिसका उल्लेख पं. बखतराम ने 'बुद्धि विलास' ग्रन्थ में श्रावकोत्पत्ति प्रकरण मे किया है- “पौरपाट” शब्द का प्रथम प्रयोग वि. सं. 610 के साढोरा ( गुना) स्थित मूर्ति लेख में मिलता है। इसके पूर्व का अभी तक न तो "प्राग्वाट" का और न "पौरपट्ट" का कोई उल्लेख मिलता है। वास्तव में प्राग्वाट > पौरपट्ट से विकसित होकर पोरवाड, परवाड, परवाल, परवार शब्द निकला है । मूर्तिलेखो में जो वि. सं. 1089 से लेकर वि. सं. 1789 तक के उपलब्ध होते है, उनमें परवार जाति के लिए 'पोरपट्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। प्राग्वाट और पौरपट्ट एक ही कहा गया है। "
  श्री अगरचन्द जी नाहटा के मत से- 

"वर्तमान गोडवाड़, सिरोही राज्य के भाग का नाम कभी प्राग्वाट प्रदेश रहा था ।"
श्वे० मुनि जिनविजयजी के मतानुसार -
'अर्बुद पर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक के लम्बे प्रान्त का नाम पहले प्राग्वाट प्रदेश था।'
स्व.श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के विचारानुसार-
"पुर" शब्द से "पुरवाड़" और "पोरवाड़" शब्दों की उत्पत्ति हुई है । "पुर" शब्द मेवाड़ के "पुर" जिले का सूचक है और मेवाड़ के लिये प्राग्वाट भी लिखा मिलता है। "
श्री ओझा जी “राजपूताने का इतिहास" की पहली जिल्द में लिखते हैं -
“करनवेल (जबलपुर के निकट) के एक शिलालेख में प्रसङ्गवशात् मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल, बेरिसिंह और विजयसिंह का वर्णन आया है, जिसमें उनको "प्राग्वाट" का राजा कहा गया है। अतएव  "प्राग्वाट" मेवाड़ का ही दूसरा नाम होना चाहिए। संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में पोरवाड़ महाजनों के लिये “प्राग्वाट" नाम का प्रयोग मिलता है और वे लोग अपना निवास मेवाड़ के "पुर" नामक कस्बे से बतलाते हैं, जिससे सम्भव है कि “प्राग्वाट" देश के नाम पर वे अपने को प्राग्वाट वंशी कहते रहे हों।"
श्री डॉ. विलास आदिनाथ संघवे, प्रोफेसर राजाराम कालेज, कोल्हापुर ने “जैन कम्युनिटी : ए सोसल सर्वे" मे 84जातियों के उल्लेख के प्रसंग में "परवार" जाति का निकास "पारानगर" से माना है । उस सूची से यह तो नहीं मालूम पड़ता है कि यह "पारानगर" कहाँ है ? फिर भी इस नगर के उल्लेख से ऐसा मालूम होता है कि या तो "पोरवा” नगर को "पारानगर" कहा  है या फिर "पुरमण्डल" को  पारानगर पद से सम्बोधित किया गया है। जो कुछ भी हो, इतना तो सुनिश्चित है कि इस अन्वय का निकास "प्राग्वाट" प्रदेश से और उससे लगे हुए पोरबन्दर तक के प्रदेश से ही हुआ है। इस स्थान को पोरबन्दर कहने का कारण भी शायद यही है ।वर्तमान में “मूल” के अर्थ में “मूर" या "शाख" शब्द प्रचलित है । अब देखना यह है कि पौरपाट (परवार) अन्वय में जो 144 या 145 मूल प्रसिद्ध हैं, वे क्या है ? पौरपाट (परवार) अन्वय का निकास मूल में मेवाड़ और गुजरात के उस भाग से हुआ है जो "प्राग्वाट" प्रदेश कहा जाता है। दूसरी इससे यह बात भी फलित होती है कि जिस ग्राम, कस्बा या नगर से आकर जो कुटुम्ब इस अन्वय में दीक्षित हुए हैं उनका मूल" वही स्वीकार कर लिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि महाराष्ट्र में जिस अर्थ में "कर" शब्द का प्रयोग किया जता है, उसी अर्थ में पौरपाट अन्वय में “मूल" शब्द का प्रयोग किया जाता है तथा गोत्र के अन्तर्गत होने से उन्हें शाख भी कहा जाता है।ये बारह गोत्रों के 144 मूर (मूल) या शाखा हैं।
        जैसा कि पहले बताया है कि  इस अन्वय प्रत्येक गोत्र के अन्तर्गत जो 12-12 मूल हैं वे ग्रामों के नामों के आधार पर ही हैं। अर्थात् जिस ग्राम के रहवासी जिस कुटुम्ब ने इस अन्वय को स्वीकार किया उस कुटुम्ब का वही मूल हो गया। इसकी पुष्टि में हम यहाँ पर एक तुलनात्मक सूची दे रहे हैं। वह इस प्रकार है-
1. ईडरीमूल ईडरशहर में रहने वालों का मूल ईडर है 
2. रक (ख) या मूल रखयाल ग्राम (सौराष्ट्र) में रहने वालों का मूल रखयाल है ।
3. नारद मूल मारवाड़ के मेड़ता जिले के पार्श्वनाथ मन्दिर में नारदपुरी का उल्लेख है।
4. कठिया मूल-काठियाबाड़ के निवासियों के इस अन्वय में सम्मिलित होने पर उनका मूल 'कठिया' प्रसिद्ध हुआ।
5. दुगायत मूल-दो नदियों का संगम स्थान (गुजरात), उसके आस-पास रहने वालों का मूल दुगायत हुआ।
6. पद्मावत मूल -इस शहर के रहने वाले।
7. पद्मावती मूल-पद्मावती शहर (गुजरात) में रहने वाले । 8.बेला-बेला स्टेशन (सौराष्ट्र), डिम या डिम्मका अर्थ छोटा होता है। बेलाडिम अर्थात् बेला नाम का छोटा ग्राम |
9. बहुरिया मूल-बहेरिया रोड स्टेशन है। बहेरिया में रहने वाले । 10.मांडू-माडलगढ़का संक्षिप्त नाम मांडू है, के रहने वाले ।
11. कुआ-गुजरात में एक ग्राम का नाम कुआ या पाटना कुआ है। एक दूसरा गाँव रानकुआ भी है।
12. कठा-कठासा स्टेशन (यहाँ के रहने वाले )
13.पटवा मूल-पटवारा स्टेशन के रहने वाले
14. लोटा मूल-लोटासा स्टेशन के रहने वाले
15. छना मूल-छना खड़ा स्टेशन के रहने वाले
16.बाला मूल-बाला रोड स्टेशन, बाला ग्राम या  बल्लापुर ग्राम के रहने वाले
17. डेरिया मूल-डेरोन स्टेशन
18. डंडिया मूल-डंडिया एक खेड़े का नाम है, उस पर से इस नाम से प्रसिद्ध
19. देदा मूल-दुद्दा स्टेशन
20. किड मूल-किडिया नाम का नगर है
21. धना मूल-धनाखड़ा स्टेशन, इस ग्राम के रहने वाले
22. उजया मूल-उजेडिया ग्राम रहने वाले
23.. किड मूल-किडिमा नगर के रहने वाले
24.सर्व छोला मूल छोला स्टेशन |
25.गोदू मूल-गोदो ग्राम के रहने वाले
26.तका मूल -टाका टुक्का ग्राम के
27.बंसी मूल-बंसी पहाड़पुर स्टेशन में रहने वाले ।




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