सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

सोनागिरि के चंदाप्रभु

डॉ.कैलाश  'कमल'ग्वालियर के साहित्याकाश में उदित हुआ ऐसा जाज्वल्यमान नक्षत्र है जिसके प्रकाश से समूचा जैन जगत आलोकित रहा है |उनके लिखे आध्यात्मिक पद और भक्ति गीत के मधुर स्वर प्रायः  सभी जैन तीर्थों में गुंजरित होते हैं |ग्वालियर के प्रतिष्ठित वैद्य कविराज श्रीलाल जैन के सुपुत्र डॉ. कैलाश  'कमल'का जन्म ई.30-08-1925 में हुआ |आपने हिंदी के अलावा उर्दू में भी लेखनी चलाई है और हिंदी और उर्दू की प्रायः सभी विधाओं में साधिकार लिखा है |आपकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं और कई प्रकाशनाधीन हैं |
                 तीर्थक्षेत्र सोनागिरि के महात्म्य का संवाद शैली में सरस वर्णन करते हुए उनका एक प्रसिद्ध गीत यहाँ प्रस्तुत है जो डॉ.अक्षय दानी के सौजन्य से प्राप्त हुआ है |
पूजा पाठ रचाऊँ मेरे बालम,आतम ध्यान लगाउंगी |
चंदा  प्रभु के  दर्शन  करने , सोनागिर  को  जाउंगी ||

सोनागिर मत जाय री सेठानियाँ ,घर को वन है जायेगो |
ताती-ताती   नरम-गरम  मोय ,करके  कौन   खावएगो ||

भरत  क्षेत्र  में   अतिशय   तीरथ ,    नंगानंग    कहावे |
टोंक-टोंक   पर   ध्वजा   विराजे ,  शोभा   खूब   बढ़ावे||
सब प्रतिमाओं को अर्घ चढ़ाउंगी ,प्रभु चरनन चित लाऊँगी|
चंदाप्रभु   के   दर्शन  करने ,  सोनागिर     को      जाउंगी ||

पति   की सेवा ,  दर्शन, पूजन   उत्तम   शास्त्र   बतावें |
पति  की  आज्ञा  बिना  कोई  सत  नारी  कहीं  न  जावे ||
भीड़-भाड़  में   कोई   फुसलाकर , दूर  कहीं  ले  जायेगो |
ताती-ताती ,  नरम-गरम  मोय , करके  कौन खावएगो ||

नित-प्रति स्वाध्याय पूजन में ,अपनो ध्यान लगाउंगी |
करूँ  वन्दना  और  आरती ,  परिकम्मा  को   जाउंगी ||
अक्षत,धुप चढ़ाऊँ मेरे बालम ,जुग-जुग दीप जलाउंगी |
चंदाप्रभु   के   दर्शन  करने ,  सोनागिर   को   जाउंगी ||

प्रभु  की   मैं  तस्वीर  लाय  दूँ, ताको  ध्यान लगाय ले|
दिव्य  दृष्टि  से  मन मंदिर में ,दर्शन कर सुख पाय ले||
हो जायेगो धन खर्च तो गोरी ,तेरो पति भूखन मर जायेगो |
ताती-ताती , नरम-गरम  मोय ,  करके   कौन   खावएगो ||

जैनेश्वरी   लयुं   मैं   दीक्षा ,  आठों   करम    जराउंगी  |
नाच नचूँ भव-भव नहीं फिर मैं ,ऐसो जोग मिलाऊन्गी||
बनूँ  अर्जिका  केश  लोच  कर , मुक्ति  पद  को पाऊँगी|
चंदाप्रभु   के   दर्शन   करने ,  सोनागिर   को   जाउंगी ||

कर्म  जरें  जर जाएँ , यह  दिल  होरी  सो  मती जरइयो|
मूंड  मुड़ाय  छोड़  बच्चन  कों, घर  को  मती  भूलइयो||
चोर  कोऊ  घुस आय  ठरगजी, सब  चोरी कर जायेगो |
ताती-ताती, नरम-गरम  मोय , करके  कौन खावएगो ||

लोक  लाज   संसार  के   बंधन , अरहंत  सच्चो   वीरा|
नरियल कुण्ड को नीर पियत ही,मिट जाय तपन शरीरा||
अनहद गाना गाऊँ मेरे सजना,बजानी शिला बजाउंगी |
चंदाप्रभु   के   दर्शन   करने ,  सोनागिर   को  जाउंगी ||

सच्चो  हे  अरहंत  अगर  तो ,  मोकुं  धन  दिलवाय दे |
हँस के  संग  चलूँ  तेरे   गोरी , मोय  यात्रा  करवाय दे ||
धोको मत दे जइयो मेरी रानी ,पति बिन मौतन मर जायेगो |
ताती-ताती  ,  नरम-गरम    मोय,  करके   कौन   खावएगो ||

तुम तो बालम ,धन के लोभी ,सब यहीं पर रह जायेगो |
पाप,पुण्य और ज्ञान, ध्यान ही ,सब के संग में जायेगो ||
जबरन तुमको अब मैं 'कमल'जी अपने संग ले जाउंगी |
चंदाप्रभु  के   दर्शन   करने ,  सोनागिर   को    जाउंगी || 

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

कविवर परिमल्ल

                      हिंदी साहित्य के संवर्धन में जैन कवियों का विशिष्ट योगदान रहा है |उन्होंने इस काव्य वाटिका की शोभा को द्विगुणित किया है और हिंदी को जनप्रिय बनाया है |ऐसा ही एक ग्रन्थ वरहिया जाति के रत्न कुम्हरिया गौत्रोत्पन्न महाकवि परिमल्ल का 'श्रीपाल-चरित'है |
                                                                                           श्रीपाल का कथानक जैन जगत में बहुत लोकप्रिय है |श्रीपाल और मैना सुंदरी अटूट धर्म- निष्ठा और विश्वास का ऐसा अनुपम उदाहरण है जो धर्मप्राण लोगों को अक्षय उर्जा प्रदान करता रहा है |यही कारण है कि जैन कवियों और विद्वानों ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाई है लेकिन जितनी लोकप्रियता महाकवि परिमल के 'श्रीपाल-चरित' को मिली ,उतनी किसी अन्य विद्वान् की इस विषयक कृति को नहीं मिली |यही कारण है कि जैन शास्त्र भंडारों में परिमल के श्रीपाल-चरित की पांडुलिपियां सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं |
                                                                      'श्रीपाल-चरित' की भाषा व्रजभाषा है |चूँकि आगरा व्रजभाषा का केंद्र रहा है इसलिए कवि ने व्रजभाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में चुना |इस विषय पर लिखी गई अन्य कृतियों के साथ कवि  परिमल कृत 'श्रीपाल-चरित'की तुलना करने पर यह कृति  भाषा ,काव्य और प्रस्तुति सभी दृष्टियों से अत्यंत प्रभावशाली है |कवि ने नायक नायिका के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं और उससे जुडी अंतर्कथाओं का बहुत प्रभावशाली और सहज बोधगम्य चित्रण किया है जो मनोमुग्धकारी है |कवि ने अपनी तूलिका से सभी पात्रों को जीवन्त कर दिया है |
                                                                   कविवर परिमल्ल 16वीं -17वीं शती के कवि हैं |उनका जन्म ग्वालियर में हुआ |यहीं उनका बाल्यकाल बीता और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई |कविवर परिमल्ल के पिता का नाम आशकरण चौधरी था जो शास्त्रों के ज्ञाता और मर्मज्ञ थे |उनके प्रपितामह चन्दन चौधरी ग्वालियर के महाराजा मानसिंह (सन 1480-1516 ई.)द्वारा सम्मानित नगर श्रेष्ठी थे और उनका बहुत बहुमान था |कवि परिमल्ल ने अपने पूर्वजों का इस प्रकार उल्लेख किया है --
                                       गोवर गिरि गढ़ उत्तम थान,शूरवीर तहां राजा मान |
                                       ता आगे चन्दन चौधरी,कीरति सब जग में विस्तरी |
                                       जाति वरहिया गुन-गंभीर,अति प्रताप कुल राजे धीर |
                                       ता सुत रामदास परवीन,नंदन आशकरण शुभ दीन |
                                       ता सुत कुलमंडल परिमल्ल,बसे आगरा में तजि सल्ल |
कवि ने श्रीपाल-चरित की रचना मुग़ल बादशाह अकबर के काल में की है किन्तु उल्लेखनीय है कि व्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि परिमल्ल किसी के आश्रित नहीं थे |कवि ने रचना के प्रारंभ के काल का उल्लेख संवत 1651 अषाढ़ सुदी अष्टमी किया है --
                                      संवत सोलह सौ ऊपरे ,सावन इक्यावन आगरे |
                                      मास अषाढ़ पहुती आई ,वर्षा ऋतू को कहे बड़ाई |
                                      पक्ष उजालो आठे जान,शुक्कर वार पार परवान |
                                      कवि परिमल्ल शुद्ध करि चित्त,आराम्भ्यो श्रीपाल चरित्त ||

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

वरहिया जैन

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इतिहास अतीत का प्रामाणिक भौतिक दस्तावेज होता है जो अनेक लिखित-अलिखित साक्ष्यों के दृश्य अदृश्य सूत्रों से गुंथा होता है |जिन साक्ष्यों का भौतिक और दृश्य अस्तित्व होता है ,यत्र-तत्र बिखरा होने के कारण उनका संकलन  करना भी एक दुष्कर कार्य है लेकिन अदृश्य सूत्रों को अत्यंत सतर्कतापूर्वक और पारस्परिक संगति का निर्वाह करते हुए यत्नपूर्वक खोजना पड़ता है जो खाक छानने से कम श्रमसाध्य कार्य नहीं है |
             जैन समाज में 84 उपजातियों की मान्यता लोकविश्रुत है |विगत 2500 वर्षों में जैन संतों के धर्म-प्रचार से प्रभावित होकर लाखों की संख्या में लोगों ने जैन धर्म अंगीकार किया और जैन अभिधान अपनाकर अपने-अपने ग्राम-स्थान के नाम से प्रख्यात हुए हैं ,जैसे-अग्रोहा से अग्रवाल ,खंडेला गाँव से खंडेलवाल ,जैसलमेर से जैसवाल ,पद्मावती पुर या पवाया गाँव के नाम से पद्मावती पुरवाल ,वघेरा  गाँव के नाम से वघेरवाल प्रसिद्ध हुए हैं |वरहिया जाति का जहाँ तक प्रश्न है ,यह एक स्वतन्त्र जाति है जो नरवर के राजा नल की वंश परंपरा में वीरमदेव से सम्बंधित है लेकिन अहिंसा वृत्ति के कारण और  क्षात्रत्व से विमुख होने व आजीविका के रूप में वाणिज्य को अपनाने के कारण कालांतर में उसकी  गणना वैश्यों में की जाने लगी |
                 जैन समाज की प्रायः सभी जातियां क्षत्रियवंशीय है। इसका कारण यह है कि सभी जैन तीर्थंकर क्षत्रिय थे। किंतु अपनी आजीविका के लिए वाणिज्यवृत्ति में संलग्न होने से लोग उनके अनुयायियों को वैश्य या वणिक समझने लगे; लेकिन वास्तव में ये क्षत्रियवंशीय ही हैं।  वैश्यों के इतिहास से भी यह पता चलता है कि प्राचीन काल के पणि जो देश-देशान्तरों तक अपने व्यापार के कारण प्रसिद्ध थे, वे अहिंसादि व्रतों का पालन करने वाले जैन थे। इस बात की पुष्टि शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर भी होती है।
वरहिया शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के वर्ह: से हुई जान ‌पड़ती है जिसका अर्थ -मोरपंख (अमरकोश),पत्ता (शब्द रत्नावली) तलवार की म्यान (हेमचंद्र) श्रेष्ठ (कवि कल्पद्रुम) तथा छत्र,चमर है। ऊपर उल्लिखित सभी अर्थ यहां अभीप्सित हैं क्योंकि इन उपकरणों  का सम्बन्ध अटूट रूप से जैन धर्मावलंबियों से रहा है तथा उत्कृष्ट और धर्मानुमोदित आचरण के कारण आर्हत-मत के अनुगामियों के समूह विशेष को धर्माचार्यों द्वारा यह अभिधान प्राप्त हुआ।
वरहिया संज्ञा स्थानवाची न होकर गुणवाची है। वरहिया समाज मूलसंघ, कुन्द्कुंदान्वय को मानने वाली समाज है जो अपनी प्राचीनता और मूलता को संजोये है और प्रतिकूल स्थितियों में भी परंपरा से विमुख नहीं हुई |यह श्रेष्ठ और मूल दिगंबर जैन धर्मानुयायिओं का संगठन ही वरहिया नाम से विश्रुत हुआ |
                           वर माने जो श्रेष्ठ है ,हिया हृदय में मान|
                           जाति वरहिया जानिए ,शीलवंत गुणवान ||
बोलचाल में इसका वरैया पाठ भी व्यवहृत हुआ है ,जो मुखसुख या प्रयत्न-लाघव के कारण हुआ है लेकिन मूल पाठ वरहिया ही है और वरैया उसका अपभ्रंश है |'वरहियान्वय ' के विद्वान् लेखक श्री रामजीत जैन ने निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्थापित किया है |विक्रमी 15वीं-16वीं सदी में प्रतिष्ठित मूर्तियों के पाद-लेख में वरहिया पद का ही उल्लेख मिलता है।19वीं विक्रमी में वरैया/वरैय्या शब्द भी प्रचलन में आ चुका था।ऐसा प्रतीत होता है कि वरहिया समाज के प्रकांड विद्वान् पं.गोपालदास वरैया की ख्याति और उन्हें मिले बहुमान को भुनाने का लोभ संवरण न कर पाने के कारण ही कुछ लोग अभी भी 'वरैया' शब्द को अपनाने का आग्रह रखे हुए है |
            यहां यह उल्लेखनीय है कि संवत् 1852 की फूलमाल की पांडुलिपि और सन् 1914 की दिगंबर जैन डायरेक्ट्री में वरहिया (वरैय्या) जाति का उल्लेख आया है और सन् 1914 की जनगणना के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वरहिया जाति की जनसंख्या 1512 थी।
      शांति पथ दर्शक -वरहिया-विलास के लेखक श्री प्यारेलाल 'लाल' ने वरहिया शब्द का व्युत्पत्यर्थ इस प्रकार किया है --
                       वर माने जो श्रेष्ठ है,   हिया हृदय निर्दोष |
                       करे रमण निज रूप में,सो विलास सुखकोष||
                       सो विलास मग मोक्ष ,रमण निज में नित करना |
                        करम  कालिमा धोय ,जाय शिवपुर सुख भरना ||
                       कहें 'लाल' कवि जैन,यही सुख का है सरवर |
                       बनो 'वरहिया'आप लेउ तुम शिव सुंदरी वर ||
    वि.संवत 1825 में भेलसी (टीकमगढ़ )के श्री नवलशाह ने वर्धमान पुराण की प्रशस्ति में गोलापूर्व जाति का इतिहास लिखते हुए वरहिया जाति को 'नेत वरहिया '  लिखा है |नेत  वरहिया का अर्थ प्राचीन एवं श्रेष्ठ है |
वि.संवत 1651 में कविवर परिमल ने श्रीपाल चरित में अपने व अपने पूर्वजों का परिचय इस प्रकार दिया है --
                      गोवरिगिरि बहु उत्तम जान ,शूरवीर वहां राजा मान |
                      ता आगे चन्दन चौधरी ,कीरति सब जग में विस्तरी |
                      जाति वरहिया गुन गंभीर ,अति प्रताप कुल राजे धीर |
                      ता सुत रामदास परवीन ,नंदन आशकरण शुभदीन |
                      ता सुत कुल मंडल परिमल्ल,बसे आगरे में तजि सल्ल|
     एक किम्वदंती के अनुसार नरवर के प्रतापी नरेश राजा नल के प्रपौत्र वीरमचन्द को वरहिया लोगों का पूर्वपुरूष बताया गया है |कालांतर में यही वरहिया वंश आठ गोत्रों में विभाजित हुआ |ये आठ गोत्र हैं --1 चौधरी ,2 कुम्हरिया,3 पलैया,4 भंडारी ,5 ऐछिया या ऐरछिया ,6 सेंथरिया या सिंहपुरिया ,7 पहाड़िया ,8 नोने या नोनेरिया |इन मूल आठ गोत्रों के पश्चात् 28 और गोत्र अस्तित्व में आये ,जिनकी सूची इस प्रकार है --
1 चौरिया ,2 वगेरिया ,3 पुनिहा ,4 निकोरिया ,5 भागी ,6 तरपटले या तरपटिया ,7 सिनरुखिया,8 सोनिया या सोनी ,9 अकलनया या इकलोने ,10 साहू ,11 कमोखरिया या केमोरिखिया ,12 उदयपुरिया ,13 अलापुरिया ,14 मेहरोटिया या मोरसिन्धु,15 गुलिया ,16 वेदिया,17 रोंसरिया ,18 इन्दुरिखिया ,19 किरोड़ या कारोडिया,20 धनोरिया ,21 वदरेठिया ,22 भटसंतानी ,23 वरैया ,24 पदमपेंथिया,25 सिंघई ,26 सेठिया ,27 तिलोरिया ,28 दाऊ |
       वरहिया जाति का निवास क्षेत्र सामान्यतः ग्वालियर जिले के -अमरोल ,ईटमा,करई,ऐसा ,करहिया,कैरुआ,कुलैथ ,घाटीगांव ,चराई,चीनौर ,छीमक ,जौरासी ,डबरा,देवरी,दुबहा ,दुबही,पाटई ,वनबार,बरौआ ,बागबई ,वाजना ,भितरवार ,भेंगना ,मोहना ,रेंहट ,लश्कर ,सभराई ,स्याऊ ,सिमरिया ,सिरसा ,बिलौआ ,मस्तूरा ,खिरिया , रिठोंदन |
         भिंड जिले में- भिंड और लहार।                                                                         
          शिवपुरी जिले में- अमोला ,आमोल ,इंदार ,करैरा ,गोपालपुर,चुरेलखेरा,चोरपुरा,धौलागढ़ ,नरवर,पारागढ़,मगरौनी ,मामौनी ,बनियानी ,राजगढ़ ,सलैया,सतनवाडा,कौलारस ,गधौटा,शिवपुरी |
          मुरैना जिले में -अलापुर,जौरा,टिकटोली ,धमकन,बानमौर,मुरैना,सुमावली ,नरहेला |
        आगरा जिले में- आगरा ,कुर्रचित्तरपुर,गढ़ी महासिंह ,बड़ा नगला ,वदे का वास,शमसाबाद ,ढोकी |
        रतलाम जिले में- जावरा ,सैलाना ,रावटी में रहा है |
इंदौर और उज्जैन में भी वरहिया समाज के कई परिवार निवासरत हैं।
   इसके अतिरिक्त अपनी आजीविका कमाने के लिए भारत के विभिन्न प्रान्तों में इस जाति के लोग निवासरत हैं |गांवों में निवास करने वाले अधिकांश लोग बेहतर आजीविका की तलाश में  अब प्रायः नगरों की ओर रुख कर रहे हैं और वाणिज्य के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में क्रियाशील हैं |कुछ परिवार विदेश में भी प्रवास कर रहे हैं।
                                    

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

एकता का बल

हे सभी वरहिया जैनों से ,मेरा विनम्र अनुरोध 
जितना संभव हो,नहीं करें आपस में वैर-विरोध |
कर लें चिड़ियाँ भी एका यदि ,लें खींच शेर की खाल
चल पड़ें कदम सब एक साथ ,आ जाते हैं भूचाल |
मोटी लकड़ी को तो कोई ,चाहे सकता हो तोड़ 
तिनके हों अगर इकट्ठे तो होते अटूट ,बेजोड़ |
शक्ति है बहुत संगठन में ,सामूहिकता में बल है 
संगठित रहेंगे जो भी ,उन सबका भविष्य उज्ज्वल है |
जो लोग सभी को साथ-साथ लेकर आगे बढ़ाते हैं 
वे ही असली जननायक हैं ,वे ही भविष्य गढ़ते हैं ||

सोमवार, 26 अगस्त 2013

स्याद्वादवारिधि पं.गोपालदास जी वरैया

               पंडितवर्य गोपालदास जी वरैया को दिगंबर जैन प्रान्तिक सभा मुंबई द्वारा 'स्याद्वादवारिधि ' उपाधि से सम्मानित करते हुए उन्हें समर्पित अभिनन्दन-पत्र जिसमें उनका व्यक्तित्व और कृतित्व प्रतिभासित होता है |
                                                                  अभिनन्दन-पत्र
                                                 
                                                            (1)
                             जिनधर्म का मर्मज्ञ और विस्तारकर्ता कौन है ?
                             निःस्वार्थता से धर्मसेवा कार्य करता कौन है   ?
                             परवाद में स्याद्वाद का झंडा उड़ाता कौन है   ?
                             सत्पक्ष के सम्मुख न धन को सिर झुकाता कौन है ?  
                                                           (2)
                             प्राचीन और नवीन मत का प्रवर पंडित कौन है ?
                             वक्तृत्व ,लेखन,वाद-आदिक,कलामंडित कौन है ?
                             इत्यादि प्रश्नों का सदुत्तर यही मिलता एक है
                             गोपालदास सुधी वरैया वंश-भूषण एक है    ||
                                                          (3 )
                             अतएव इस प्रान्तिक सभा ने,ह्रदय के उल्लास से
                             कर्तव्य पालन के लिए,निज भक्तिभाव विकास से |
                             यह वर्णमय लघुभेंट सम्मुख की उपस्थित आपके
                             स्वीकार हो हे प्राज्ञवर !आगार सुगुण कलाप के  ||
                                                          (4 )
                             स्याद्वाद्वारिधि शुभ इसी उपनाम के वरयोग की
                             अपनाइए और कीजिये महनीय इस संयोग की  |
                             इस में न  पर कुछ आपका हमने किया उपकार है
                             केवल हमारी भक्ति का यह आंतरिक उद्गार है ||
                                                         (5 )
                            बढ़ता न वारिधि मान,उसको यदि जगत वारिधि कहे
                            वह तो बड़ा है स्वयं ही, कोई कहे या न कहे       |
                             इस ही प्रकार अपार है स्याद्वाद विद्या आपमें
                            'स्याद्वादवारिधि'पद  अपेक्षित है न उसके माप में ||
                                                       (6)
                            परहित निरत हो इस सभा की जड़ जमाई आपने
                            चिरकाल श्रमजल सींचकर,ऊँची बनाई आपने   |
                            यह आपकी है वस्तु इसको भूलिएगा मत कभी
                           केवल यही करते निवेदन नम्र होकर हम सभी  ||

(गोपालदास जी का जन्म ई.१८६७ ,देहावसान ई.१९१७ )     

गुरुवार, 14 मार्च 2013

वरहिया जैन :एक परिचय

 

जैन धर्म और दर्शन एक अतिप्राचीन और अवैदिक चिंतन-परंपरा है, जिसका एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास है |भारतीय दर्शन के अक्षय ज्ञानकोष को भरने में जैन चिंतन-परंपरा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है|
जैन मतावलंबियों की संख्या यद्यपि बहुत कम है लेकिन उन्होंने जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्रों में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराई है |
             जैन शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन 'शब्द से हुई है जिसका अर्थ है इन्द्रियजेता अर्थात इन्द्रियों को जीतनेवाला |जिन्होंने आत्मानुशासन सिद्ध कर इन्द्रियों को वशंगत कर लिया हो ,ऐसे जितेन्द्रिय 'जिन' कहलाते हैं और 'जिन' के अनुयायीवृन्द ही जैन कहलाये हैं |
             प्राचीन आर्षग्रंथों में जैनों का उल्लेख आर्हत और निर्ग्रन्थ नाम से भी हुआ है |जैन परंपरा के पुरस्कर्ता चौबीस महापुरुषों में से अंतिम और चौबीसवें महापुरुष महाश्रमण वर्धमान महावीर का बौद्ध ग्रंथों में 'निगंठ नातपुत्त' के नाम से उल्लेख है |निगंठ या निर्ग्रन्थ से आशय ऐसे यतियों से है ,जिन्होंने दुर्धर्ष तप कर रागद्वेष  की मनोग्रंथियों का मूलोच्छेद कर इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की हो |
             जैन परंपरा में कालक्रम से मान्यता भेद के कारण दो संप्रदाय या आम्नाय अस्तित्व में आये ,जिन्हें क्रमशः दिगंबर और श्वेताम्बर नाम से जाना जाता है |दिगंबर और श्वेताम्बर जैसाकि नाम से ही विदित और स्पष्ट हो जाता है कि यह नामकरण साधुओं या यतियों  के वस्त्र न पहनने और श्वेत वस्त्र धारण करने के आधार पर हुआ है |
              दिगंबर आम्नाय की चौरासी उपजातियों में से ही एक वरहिया उपजाति है जिसका भौगोलिक प्रसार क्षेत्र प्रमुख रूप से प्राचीन गोपाचल जनपद (म.प्र. स्थित वर्तमान ग्वालियर )का ग्राम्यांचल रहा है |वरहिया जाति सबसे प्राचीन जैन संघ मूलसंघ और बलात्कार गण(यहां बलात्कार शब्द का तत्समय प्रचलित अर्थ बलपूर्वक ग्रहण करें) के अंतर्गत है और कुंदकुदाम्नाय, सरस्वती गच्छ में परिगणित है। हालांकि कई फूलमाल पचीसी (जो वास्तव में जैन धर्मावलंबी समाजों की सूची है) में वरहिया जाति का उल्लेख नहीं। फिर भी प्रमुख सूचियों में इस जाति का उल्लेख है।जिन फूलमाल पचीसी में वरहिया जाति का उल्लेख नहीं है उसका कारण उन ग्रंथकर्ताओं का दूरस्थ और ग्राम्य क्षेत्र में निवासरत वरहिया जाति से उनका अपरिचय ही है। 
           विक्रम की 15वीं 16वीं शताब्दी से इस समाज के विकास के बारे में पता चलता है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर के बड़े मन्दिर में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के पादलेख के अनुसार "सम्वत् 1545 वर्षे वैसाख सुदी 10 चन्द्र दिने श्री मूलसंघे, सरस्वती गच्छे ,बलात्कार गणे ,श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री जिन चन्द्रदेवाः वरहिया-कुलोद्भव साहु लखे भार्या कुसुमा तयो पुत्र साहु मल्लू तस्य भार्या उदयश्री तस्य पुत्र चन्द्र ज्येष्ठ, सा. लहण तत्कनिष्ठ सा. छोटे तत्कनिष्ठ सा. वीरसिंह तत्कनिष्ठ सा. अर्जुन तत्कनिष्ठ सा. प्रभु तत्कनिष्ठ सा. पलटू तत्कनिष्ठ सा. बल्दु तेषां मध्ये सा. अर्जुन तस्य भार्या मता तेन अजुनेनेदं आदीश्वरबिंवं स्व पूजनार्थ करोपितां ।" यह कामताप्रसाद जैन की पुस्तक 'प्रतिमा-लेख संग्रह के प्रथम पृष्ठ एवं भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तक सम्पादक विद्याधर जोहारपुर के पृष्ठ 104 के लेखांक 262 पर दिया है।
             गुरुवर्य पंडित गोपालदास जी वरैया जिन्होंने समूचे हिंदी प्रदेश और उसके बाहर भी जैन न्याय और दर्शन की दुन्दुभी बजाई और जैन धर्म की कीर्ति पताका फहराकर आध्यात्मिक ज्ञान का आलोक फैलाया है ,इसी उपजाति के गौरव-रत्न हैं |वर्तमान में भारतवर्ष में जितने भी जैन विद्वान् और मनीषी हैं ,उनमें से अधिकांश पंडित गोपालदास जी की शिष्य-प्रशिष्य परंपरा में आते हैं |
            ग्राम्यांचल में निवास करने के फलस्वरूप अन्य जैन जातियों के साथ इसका सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर्विनमय न होने के कारण यह उपजाति अल्पज्ञात रही है |इसके  मूल उद्गम स्थान को लेकर भी मतभेद  हैं  |ग्वालियर निवासी श्री रामजीत जी जैन ने 'वरहियान्वय'नाम से वरहिया जाति का इतिहास लिखा है जो इस जाति के समाजशास्त्रीय अध्ययन का पहला व्यवस्थित प्रयास है |हालांकि इसमें कई सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गये हैं और मूल उद्गम स्थान के बारे में उनकी स्थापना भी ठोस अन्तःसाक्ष्यों पर आधारित न होने के कारण एकांगी है किन्तु फिर भी यह इस दिशा में पहला प्रयास होने के नाते उल्लेखनीय और स्तुत्य है |
         जनश्रुति के आधार पर 'वरहिया'पद की व्याख्या श्रेष्ठ ह्रदय वाले व्यक्ति के रूप में की जाती है ।यह एक गुणवाची पद है और निश्चित रूप से यह स्थानवाची नहीं है।
 वरहिया शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के वर्ह: से हुई जान ‌पड़ती है जिसका अर्थ -मोरपंख (अमरकोश),पत्ता (शब्द रत्नावली) तलवार की म्यान (हेमचंद्र) श्रेष्ठ (कवि कल्पद्रुम) तथा छत्र,चमर है। ऊपर उल्लिखित सभी अर्थ यहां अभीप्सित हैं क्योंकि इन उपकरणों  का सम्बन्ध अटूट रूप से जैन धर्मावलंबियों से रहा है। उत्कृष्ट और धर्मानुमोदित आचरण के कारण आर्हत-मत अनुगामियों  के समूह विशेष को धर्माचार्यों द्वारा यह अभिधान प्राप्त हुआ।
        विवाह जैसे महत्वपूर्ण संस्कार किसी भी जाति के सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और इन मांगलिक अवसरों पर होने वाले विशिष्ट अनुष्ठानों और लोकाचारों में उस जातीय समूह के  सांस्कृतिक कूट संकेत छिपे रहते हैं जिन्हें विकोडित करने पर  अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं |वरहिया जाति के  वैवाहिक लोकाचारों में 'इड़रे-विडरे ' और 'शिले-कूकरे 'जैसे विशिष्ट लोक शैलीबद्ध  गीत गाये जाते हैं जिन्हें रस्म निभाने के लिए पूरा तो किया जाता है लेकिन उन्हें बूझने का कोई प्रयास नहीं हुआ |मेरे मतानुसार यदि इस सांस्कृतिक पहेली को सुलझा लिया गया तो अब तक अनुत्तरित अनेक प्रश्नों के उत्तर हमें मिल सकते हैं और जिसके लिए गहन शोध हमारी बाट जोह रहा है ||