सोमवार, 29 अप्रैल 2024

गोलापूर्व/गोलालारे जैन

(गोलपूर्व अन्वय के साहू गाले और साहू टुडा के परिवारों द्वारा स्थापित भूमिगत कक्ष में ई. 1145 (विक्रमी 1202) की भगवान आदिनाथ की पापोराजी में विराजमान मूर्तियां )
 

गोलापूरब, गोलाहरे(गोलालारे) यह जैन उपजाति  मुख्य रूप से सागर, दमोह और नरसिंहपुर जिलों में निवास करती है। सामान्यतः सभी गोलपूरब व्यावहारिक रूप से दिगंबर जैन हैं जिनमें अल्प संख्या में हिंदू भी हैं। कुछ इलाकों में वे परवार वैश्यों के साथ रोटी -बेटी का व्यवहार  करते हैं जो दिगंबर जैन हैं।एक किंवदंती के अनुसार गोलापूरब एक पुरबिया व्यक्ति जो संभवतः बैस राजपूत थे‌, के अहीर जाति की एक  महिला के साथ संसर्ग से हुई संतानें हैं। गोला या गोलक नाम के साथ इस व्युत्पत्ति की संगति  बैठाई जाती है। गोलक शब्द का अर्थ किसी विधवा की जारज संतान होता है और जो नीच शब्द का समानार्थी है  जिसके साथ परसर्ग के रूप में पूरब या पुरबिया जुड़ा है। बर्ट्रेंड एन रस्सेल ने इस प्रकार गोलापूर्व वंश की उत्पत्ति को रेखांकित किया है।संयुक्त प्रांत में गोलाहरे या गोलालारे नामक वणिकों की एक छोटी उपजाति भी मौजूद रही है, जो झाँसी जिले से संबंधित है और यह गोलपूरबों का मूल स्थान बताया जाता है और ये सभी  धर्मत: जैन हैं। गोलापूरबों का यह समूह वह है जिसे मिस्टर क्रुक ने अपनी पुस्तक 'ट्राइब्स एंड कास्ट' में गोला शब्द से सम्बंधित और उससे व्युत्पन्न माना है ।ये लोग अनाज का व्यापार करते थे। संयुक्त प्रांत में गोलापूरब नामक कृषकों की एक जाति भी है, जो केवल आगरा जिले में निवासरत रही है।यह भी मान्यता है कि ये लोग सनाढ्य ब्राह्मणों की अवैध संतान हैं, जिनके साथ वे निकटता से जुड़े हुए मालूम होते हैं। हालाँकि, उनके कुल-नामों में, कई राजपूत कुलों के नाम और  निम्न-जाति से जुड़े  कुछ नाम भी शामिल हैं। मिस्टर क्रुक ने उनकी ब्राह्मणों से उत्पत्ति की संभावना को खारिज किया है।यह ध्यान देने योग्य है कि ये गोलपूरब एक कृषक जाति होते हुए भी, वैश्यों की तरह, दस्सा नामक एक उपजाति के रूप में वर्णित हैं, जिसमें अनियमित वंश के व्यक्ति शामिल हैं। वे विधवाओं के पुनर्विवाह को वर्जनीय मानते हैं और सभी मांस -मदिरा और प्याज- लहसुन के सेवन का निषेध करते हैं।इस तरह के रीति-रिवाज निश्चित रूप से एक कृषक जाति में अजीब मालूम होते हैं।ऐसा संभव प्रतीत होता है  कि संयुक्त और मध्य प्रांत में वैश्यों की गोलाहरे और गोलापूरब दोनों उपजातियां क्रमशः गोलापूरबों की इस कृषि कार्य में संलग्न रही जाति से जुड़ी हुई रही हैं। बहुत संभव है कि कालान्तर में इस खेती करने वाले समूह ने  जैन धर्म का परित्याग कर दिया हो, क्योंकि एक जैन व्यक्ति अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण कृषि कर्म में प्रवृत्त नहीं रह सकता और ऐसा कार्य नहीं कर सकता जिसमें पशुओं का उत्पीड़न होता हो। उनके एक समूह ने वैश्य वर्ग की बेहतर सामाजिक स्थिति प्राप्त करने और स्वयं को कृषि कार्य करने वाले समूह से विभेदित करने के लिए जैन धर्म अपनाया होगा।खेती करने वाले  मध्य प्रांत के गोलापूरबों के बारे में दुर्भाग्यवश कोई विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, जिससे इस परिकल्पना का अन्यथा परीक्षण किया जा सके। 

 गोलापूर्व समुदाय का उल्लेख करने वाले कई चंदेल -कालीन शिलालेख प्राप्त हुए हैं। जिनमें जगतसागर झील ( धुबेला संग्रहालय में ) (वि. 1119 यानी 1062 ई.)उरदामऊ ( वि. 1149, 1171 यानी ई. 1092 और 1114), बहोरीबंद (1125 ई.), मऊ (वि
. 1199) शामिल हैं। , जतारा (वि.1199), अहारजी (वि. 1202), छतरपुर (वि.1202), पपोराजी (वि. 1202), मऊ (वि.1203), नवागढ़ (वि. 1195, 1203), महोबा (वि.1219) आदि। बहोरीबंद को छोड़कर, सभी प्राचीन शिलालेख धसान नदी (संस्कृत शब्द दशार्ण ) के आसपास पाए गए हैं ।

गोलापूर्व समुदाय से ऐतिहासिक रूप से जुड़े शहर मध्य प्रदेश में छतरपुर, टीकमगढ़, सागर और दमोह जिलों और उत्तर प्रदेश में ललितपुर जिले में इस समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है।
ई.1769 में लिखे गए नवलशाह चंदेरिया के " वर्धमान पुराण " के एक वृत्तांत में कवि ने गोलापूर्व समुदाय के इतिहास का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने स्वयं के वंश, अपने पूर्वजों जो सुदूर प्राचीन काल में चंदेरी में रहते थे तथा 1634 ई. में उनके पूर्वजों द्वारा भेलसी में गजरथ प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। खतौरा में भी उनके पूर्वजों के निवास का विवरण है।भेलसी में उनके पूर्वजों द्वारा बनवाया गया मंदिर आज भी मौजूद है। उनके अनुसार, गोलापूर्वजाति  की उत्पत्ति गोयलगढ़ नामक स्थान से हुई है। पंडित नाथूराम प्रेमी और पंडित मुन्नालाल रांधेलीय ने इस समुदाय की उत्पत्ति गोला नामक स्थान से हुई मानी है। इसकी पहचान ग्वालियर या बुन्देलखण्ड क्षेत्र के एक शहर गोलापुर या श्रवणबेलगोला शिलालेख में वर्णित गोल्ल देश नामक क्षेत्र के रूप में की गई है। भिंड/इटावा क्षेत्र में गोलालारे (संस्कृत में गोलाराडे) और गोलसिंघारे नामक दो जैन समुदाय मौजूद हैं जो इससे संबंधित हो सकते हैं। गोलापूरब नाम का एक ब्राह्मण समुदाय भी है जो आगरा क्षेत्र में सनाढ्य ब्राह्मणों की एक शाखा है और कहा जाता है कि उनकी उत्पत्ति सनाढ्य साम्हिया  के गोला गांव से हुई थी।
ऐसी भी मान्यता है कि गोलापूर्व प्राचीन इक्ष्वाकु वंश के वंशज हैं।  1864 में सैम के सौराई में मिले शिलालेख में कहा गया है कि मंदिर के निर्माता सिंघई मोहनदास इक्ष्वाकु वंश के थे, जो गोलापूर्व समुदाय के गोत्र पद्मावती और चंदेरिया के गोत्र थे। इस तरह के अन्य उल्लेख मध्य प्रदेश के नैनागिरि के कुछ शिलालेखों में भी मिलते हैं ।
 यमुना और नर्मदा के बीच के भाग या दशार्ण(धसान)नदी के किनारे अर्थात मथुरा से जबलपुर और भोपाल से ओरछा के भूभाग की पहचान गोल्ल देश के रूप में की गई है। आज भी इस भूभाग में गोलापूर्व जाति की बहुलता पायी जाती है। गोपाचल, ग्वालियर, महोबा, आदि इनके केंद्र माने जाते रहे है।
इसी क्षेत्र में चंदेलवंशी राजा यशोवर्धन हुए जिन्होंने श्रवण बेलगोला में दीक्षा ली और इस प्रकार गोल्ल देश से सम्बंध जुड़ने के कारण गोल्लाचार्य के नाम से विख्यात हुए ।जिसका उल्लेख श्रवण बेलगोला के अनेक शिलालेखों में मिलता है।
ईसा की तीसरी शताब्दी में हुए नंदी संघ के देशीयगण में आचार्य गुणनंदी संवत् 353 ई. 296 और आचार्य ब्रजनन्दी संवत् 364 ई.307 आदि आचार्यो के नाम का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके साथ ही गोलापूर्व समाज में अनेक साधु आचार्य एवं विद्वान मनीषी हुए हैं। इसी समुदाय में श्री नवलशाह श्रेष्ठ विद्वान कवि हुए हैं जिन्होंने वर्धमान पुराण की रचना की है।  क्षुल्लक श्री चिदानंद, मुनिश्री क्षमासागर जी, पंडित बालचंद्र शास्त्री,साहित्याचार्य पन्नालाल जी इसी समुदाय के रत्न हैं।
गोलापूर्व जाति स्वाभिमानी, सच्चरित्र, धार्मिक, संयमी, दानी, एवं स्वाध्यायी, निष्ठावान रही है। इस समुदाय द्वारा  अनेक स्थानों पर जिन मंदिर, मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख प्राप्त शिलालेखों में मिलता है।   
गोलापूर्व समाज ने 9 वीं - 10 वीं शताब्दी से नगर - नगर में अनेक मंदिर मूर्तियों की स्थापना की जिनके अनेक अवशेष आज भी गोल्ल देश की सीमा और उसके बाहर भी बहुतायत में प्राप्त होते है।

स्रोत: Tribes and Caste of the central province of India by Robert Vane Russell 

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