वरहिया -श्री , ब्लॉग दिगंबर जैन आम्नाय की वरहिया उपजाति की सामाजिक,सांस्कृतिक गतिविधियों के विविध आयामों को समेटकर बृहत्तर पटल पर उसकी उपस्थिति को दर्ज कराने का एक विनम्र प्रयास है |
सोमवार, 30 जनवरी 2023
विवाह से जुड़ी कुछ चिंताएं
विवाह को लेकर आज जैन समाज में और विशेषकर वरहिया जैन समाज में जो स्थिति बन रही है वह सचमुच डरावनी है। क्योंकि बड़ी संख्या में विवाह योग्य युवक और युवती जिनकी उम्र तीस से पैंतीस वर्ष या अधिक है, अविवाहित हैं। इनमें ज्यादातर वे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं या वे हैं जिनके पास आकर्षक जाॅब नहीं है या फिर उच्च शिक्षित वे लोग हैं जिन्हें अच्छे पैकेज मिलते हैं और जो महानगरों में कार्यरत हैं। शादी के लिए ग्रामीण क्षेत्र का नाम सुनकर धुर ग्रामीण परिवेश में रहने वाली लड़की यदि नाक-भौंह सिकोड़ने लगे तो अचरज न करें। यह टीवी और इंटरनेट की चकाचौंध और उससे उपजी महत्वाकांक्षा का नतीजा है।लिहाजा मज़बूरन कई अभिभावकों को बिहार, बंगाल से मैनेज करके यानी खरीदफरोख्त करके बहुएं लाने की राह चुननी पड़ी। यह स्थिति कतई श्रेयस्कर नहीं कही जा सकती है।अब अगर कामकाजी लोगों की बात करें तो वे पहले तो खुद को आर्थिक तौर पर मजबूत करना चाहते हैं और जिंदगी में इस्टेब्लिस होना चाहते हैं फिर कहीं शादी के बारे में सोचना चाहते हैं। महानगरों में जाॅब करने वाले को तो रिलेशनशिप का ऑप्शन भी सुलभ है और शायद इसीलिए वे या उनमें से ज्यादातर लोग विवाह की उम्र में भी विवाह को लेकर यों बेफिक्र हैं। अलबत्ता बच्चों के विवाह की चिंता उनके मां बाप को सताती रहती है । लेकिन कभी योग्य जीवन साथी न मिलने का रोना रहता है तो कभी आर्थिक असुरक्षा का बहाना बनाया जाता है और कभी दहेज भी एक फैक्टर होता है।इस स्थिति के लिए सिर्फ उनके माता पिता को दोषी ठहराकर पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं क्योंकि यह उनकी शुरुआती परवरिश का नहीं बल्कि पश्चिमी जीवन शैली का साइड इफेक्ट है।
आज के दौर में बच्चों को उच्च शिक्षा और महानगरों से दूर नहीं रखा जा सकता है। अपने सामाजिक संस्कारों और पश्चिमी जीवन मूल्यों के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए यहीं पर परिजनों की भूमिका अहम हो जाती है। लेकिन काम-धंधे की व्यस्तता या अपने बच्चों पर अतिविश्वास के कारण परिवार जनों से यहीं चूक हो जाती है और वे अपनी इस अहम भूमिका के निर्वहन में जाने अनजाने में गलती कर बैठते हैं। इसलिए जरूरी है कि अपने बच्चों से संवाद की कड़ी न टूटने दें और भावनात्मक रूप से उनका संबल बने रहें । क्योंकि जब उनके जीवन में भावनात्मक रिक्तता पैदा होगी तो वे उस खालीपन को किसी और तरह से भरने की कोशिश करेंगे। आज कामकाजी युवक -युवतियों के वैवाहिक और पारिवारिक जीवन में जो समस्याएं आ रही हैं उनके मूल में अक्सर उनके विवाह पूर्व के उन्मुक्त जीवन की स्थितियां ही जिम्मेदार रहती हैं। इसलिए बेहद सतर्कता से इन स्थितियों को हैंडल करने की जरूरत है। ध्यान रहे कि प्रगतिशीलता के नाम पर उच्छृंखलता और सामाजिक रीति रिवाजों की अनदेखी की भारी कीमत हमें चुकानी पड़ेगी। मैं यहां यह बात स्पष्ट करता चलूं कि किसी प्रकार की रूढ़िवादिता का पोषण करना मेरा मंतव्य नहीं है लेकिन सारे रिवाज निरर्थक और कालबाह्य नहीं होते, यह बात समझना बेहद जरूरी है।देखने में आता है कि मां-बाप की प्रतिष्ठा और सामाजिक स्थिति की परवाह न कर होने वाली लव मैरिज में जब हीनतर सामाजिक स्थिति वाले कमाऊ युवक या युवती वैवाहिक बंधन में बंधते हैं तो ऐसे रिश्ते जीवन भर नासूर की तरह चुभते रहते हैं और जिसका कोई प्रायश्चित नहीं होता।घर वालों को जीवन साथी के चुनाव में बच्चों (विवाहार्थी) की इच्छा को अधिमान्यता तो देनी चाहिए लेकिन खुदमुख्तारी नहीं। वर्ना स्थिति हाथ से निकल जाती है।
कोई व्यक्ति कब विवाह करता है यह उसकी मर्जी है लेकिन उसे कब विवाह करना चाहिए इस बारे में यह जानना उपयोगी और दिलचस्प होगा कि 24-25 वर्ष की उम्र में फर्टिलिटी रेट सबसे ज्यादा होता है और स्पर्म क्वालिटी सबसे अच्छी होती है।यह रिसर्च बताती है। इसलिए 35-36 या उससे अधिक उम्र में शादी होने पर होने वाले बच्चों के जीन की गुणवत्ता तुलनात्मक रूप से बेहतर नहीं होती और उनके मानसिक रूप से किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होने की संभावना काफी ज्यादा रहती है। इसलिए सही समय पर ही सही फैसले लेने चाहिए।
हम सबको इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। सामाजिक स्तर पर भी इस दिशा में सकारात्मक पहल किया जाना जरूरी है। सिर्फ एक -दूसरे पर दोष मढ़ने से यह समस्या हल होने वाली नहीं है। किसी का परिहास करने या उसे नीचा दिखाने के बजाय उसका सही मार्गदर्शन कीजिए।यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।
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