शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

पद्मावती पुरवाल जैन


 
पद्मावती पुरवाल जैन और पद्मावती नगरी के बीच नाभि-नाल सम्बन्ध रहा है।यह नगरी ही पद्मावती पुरवालों की उद्गम स्थली रही है। मगधराज महाराज श्रेणिक/बिंबिसार(ईसापूर्व 544) के शासन काल में व्यापारिक श्रेणियों की वैश्य महासभा बनाने के उद्देश्य से पद्मावती नगरी के एक धनी श्रेष्ठी ने व्यापारियों का एक सम्मेलन आहूत किया था जिसमें देश भर से 84 स्थानों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस बात से पद्मावती नगरी की प्राचीनता, ऐतिहासिकता और उसका सांस्कृतिक महत्व रेखांकित होता है।अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू ने (जो स्वयं पद्मावती पुरवाल समाज के एक रत्न हैं), अपने  'सम्मइ जिन चरिउ' ग्रंथ में  पद्मावती नगरी का 'पोमावइ'  के रूप में उल्लेख किया है। यह नगरी एक समय में बहुत समृद्ध थी। इसकी समृद्धि का उल्लेख खजुराहो से प्राप्त वि. सं. 1052 के शिलालेख में मिलता है। उसमें बताया गया है कि यह नगरी ऊंचे-ऊंचे गगनचुम्बी प्रासादों और भवनों  से सुशोभित थी। उसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और उसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें आकाश से बातें करती थीं
इस वर्णन से हम सहज ही पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं और यह बहुत सहज और स्वाभाविक है क्योंकि प्राचीन समय में आवागमन, यातायात और व्यापार  का सबसे सुगम साधन  नदियां ही थीं।  पद्मावती नगरी के चारों ओर भी नदियां हैं। इसलिए पूर्व में यह समृद्धिशाली नगरी रही होगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
 वर्तमान में सिंध और पार्वती नदी के संगम पर ग्वालियर जिले में स्थित पवाया नामक एक छोटा सा ग्राम जो साहित्यिक और पुरातत्वीय सामग्री के आधार पर प्राचीन पद्मावती नगरी मानी जाती है। एक अभिलेख के अनुसार इसकी स्थापना त्रेता युग में पद्म राजवंश के एक राजा ने की थी ।
         तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का विहार पद्मावती नगरी में हुआ था। भगवान पार्श्वनाथ ने देश के अनेक भागों में विहार करके आर्हत धर्म का जो अतिशय प्रचार किया, उससे प्रभावित होकर अनेक आर्य, अनार्य जातियां उनके धर्म में दीक्षित हुईं। नाग, द्रविड़ आदि जातियों में उनकी मान्यता असंदिग्ध थी । वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का उल्लेख वेद विरोधी व्रात्यों के रूप में  मिलता है ।
         वस्तुतः व्रात्य श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी ही थे । इन व्रात्यों में नाग जाति सबसे शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उद्यानपुरी, अहिच्छत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं । पार्श्वनाथ  नाग जाति के इन केन्द्रों में कई बार पधारे थे ।
            सर्व साधारण के समान राज परिवारों पर भी भगवान पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव था। उस समय जितने व्रात्य क्षत्रिय राजा थे वे पार्श्वनाथ के उपासक थे।
        पद्मावती नगरी का उल्लेख विष्णु पुराण में भी मिलता है। जिसे नागों की तीन राजधानियों में से एक बतलाया है। अन्य राजधानियों में कांतिपुरी और मथुरा थी । इसकी पुष्टि वायु पुराण से भी होती है। जिसमें दो राजवंशों का उल्लेख है, एक पद्मावती के और दूसरे मथुरा के । इन दोनों राजवंशों में क्रमश: 9 और 7 राजा हुए।पवाया में प्राप्त पुरालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है कि ईसा की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में यहां नाग राजाओं का राज्य था। पद्मावती नगरी के नाग राजाओं के सिक्के  मालवा में कई जगहों पर मिले हैं। नागवंश का पराभव ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग मध्य में हुआ। जब इनका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया था।
     पद्मावती नगरी का उल्लेख संस्कृत के महाकवि वाण के 'हर्षचरित' में हुआ है। सुविख्यात नाटककार भवभूति के 'मालती माधव' में भी इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है। जिसमें नगर की भौगोलिक स्थिति का विशद वर्णन किया गया है। यहां एक विश्वविद्यालय भी था जहां विदर्भ और सुदूरवर्ती प्रान्तों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे | ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है जिसके अनुसार पौराणिक काल में पद्मावती नाम का एक जनपद था, जिसका प्रधान केन्द्र 'पद्मनगर' था।
       मध्यकाल में पद्मावती 40 कि.मी. पश्चिम की ओर स्थित नरवर के शासक विभिन्न राजपूत तथा मुसलमान राजाओं के अधिकार में रही। सन् 1506 में सिकन्दर लोदी ने जब नरवर पर विजय प्राप्त की और तो उसने पवाया को जिले का मुख्यालय बनाया। कहा जाता है कि सफदर खां ने, जो कदाचित् पहला प्रशासक था, परमारों द्वारा बनवाये किले में सुधार किया और उसका नाम अस्कन्दराबाद रखा जैसा कि फारसी अभिलेख में उल्लिखित है। मुगल सम्राट जहांगीर ने इसे ओरछा के वीरसिंहदेव को उसकी स्वामिभक्ति के प्रतिफल में दिया था। बुन्देला सरदार ने यहां शिव का दुमंजिला मंदिर बनवाया ।
    यहां सन् 1925, 1934, 1940 और 1941 में चार बार उत्खनन कार्य किये गये । खुदाई में ईस्वी सन् की पहली शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक की अनेक पुरातात्विक महत्व की सामग्री मिली है। इनमें से एक मणिभद्र यक्ष की पूर्ण मानवाकार मूर्ति है जिस पर लगभग ईस्वी सन् की पहली शताब्दी के ब्राह्मी लेख उत्कीर्ण है। खण्डहरों से उपलब्ध अनेक सिक्कों को एकत्र करके ग्वालियर के संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया है।
       वर्षों तक उपेक्षित रहने के कारण पद्मावती नगरी का मूल स्वरूप तो नष्ट हो गया लेकिन ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक छोटा-सा गांव बसा हुआ है। अब यह मध्यप्रदेश प्रान्त के ग्वालियर जिले का एक गांव है जो दिल्ली से मुंबई  जाने वाली सेन्ट्रल रेलवे लाइन पर डबरा नामक स्टेशन से कुछ दूरी पर स्थित है। यह ग्वालियर मुख्यालय से 63 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
     यह पद्मावती नगरी ही पद्मावतीपुरवाल जाति का उद्गम  स्थल है। इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया ग्राम' का पद्मावतीपुरवालों के लिए विशेष और ऐतिहासिक महत्व  हैं भले ही आज वहां पर पद्मावती पुरवालों का निवास न हो लेकिन उसके आस-पास के क्षेत्रों में आज भी पद्मावती पुरवाल समाज के सैकड़ों परिवारों का निवास है। इक्ष्वाकु वंश परम्परा में हुए सोमवंशी नरेश जयकुमार जो हस्तिनापुर के प्रतापी शासक थे,को पद्मावती पुरवालों का पूर्वपुरुष बताया जाता है।जो कालांतर में धार्मिक, राजनीतिक कारणों से हस्तिनापुर से पलायन कर पद्म नगर में निवास करने लगे। पद्मावती नगरी पद्म नगर का ही अपर नाम है।
      अनेकान्त जून 1969 पृष्ठ 58 पर पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैन समाज की कुछ उपजातियां' शीर्षक लेख में लिखा है कि
पद्मावती पुरवाल सभी दिगम्बर जैन आम्नाय के पोषक हैं और बीसपंथ के प्रबल समर्थक हैं, प्रचारक हैं। पद्मावती पुरवाल ब्राह्मण भी पाये जाते हैं। यह अपने को ब्राह्मणों से संबद्ध मानते है। इस जाति के विद्वानों में ब्राह्मणों जैसी प्रवृत्ति पाई जाती है ।
इन्हीं पं. परमानन्द शास्त्री ने 'जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग-2 पृष्ठ 458 पर लिखा है कि चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों में रहती है। इनकी संख्या भी कई हजारों में है। यद्यपि इस जाति के कुछ विद्वान अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं।
     ईसा की पहली शती में आसपास मथुरा, कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं का राज्य था। इनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से सम्राट कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में कान्तिपुरी और पद्मावती ग्वालियर क्षेत्र में आते हैं। पद्मावती वर्तमान में पवाया नाम के छोटे से ग्राम के रूप में विद्यमान है। कान्तिपुरी के स्थान पर कुतवार (सिंहोनिया)नामक ग्राम है जो मुरैना जिले में स्थित है। जिस समय ये दोनों स्थान महानगरों के रूप में बसे थे, उस समय गोपाद्रि(गोपाचल) गोपों अर्थात् गोपालकों की भूमि थी और उसका विशेष महत्व नहीं था।
       जैनियों की चौरासी उपजातियों में एक 'पद्मावती पुरवाल' भी है। इसी उपजाति में रइधू नामक अपभ्रंश के महाकवि  हुए हैं। वह अपने आपको 'पोमावई-कुल- कमल- दिवाकर लिखते है। कुछ पद्मावतीपुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों से बतलाते हैं। जैन जाति के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण प्रसूत होने पर घोर आपत्ति है लेकिन परंपरा पद्मावती पुरवालों में प्रचलित जनुश्रुति का समर्थन करती है। जिसे वे पूज्यपाद देवनन्दि कहते हैं वह पद्मावती के नाग सम्राट देवनन्दि है । वह जन्मना ब्राह्मण थे। उनकी मुद्रायें बड़ी संख्या में पद्मावती में प्राप्त हुई हैं जिस पर 'चन्द' का लाच्छन मिलता है और 'श्री देवनागान्य या 'महाराजा देवेन्द्र' श्रुति वाक्य उल्लिखित है। देवनाग का अनुमानित समय ईसा की पहली शती है।पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति तथा पद्मावती के देवनाग का इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं। यह सर्वथा संभव है कि देवनन्दि या उनके किसी पुत्र ने जैनधर्म  अंगीकार कर लिया था और उसकी संतति पद्मावती पुरवाल जैन कहलाने लगी। ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से भले ही पद्मावती पुरवाल अपनी मूल भूमि छोड़कर अन्यत्र चले गए  तो भी वे न तो पूज्यपाद देवनन्दि को भूले और न अपनी धात्री पद्मावती को ही भूले। इस प्रकार पद्मावती ( पुर) नगर के रहने वाले जन ही कालांतर में पद्मावती पुरवाल कहलाए । खंडेलवाल जैन समाज के बृहद इतिहास के विद्वान लेखक डा.कस्तूरचंद कासलीवाल ने पूज्यपाद(देवनदी) को पद्मावती पुरवाल माना है। वरहिया जैन समाज के रत्न ग्वालियर निवासी श्री रामजीत जैन, एडवोकेट ने पद्मावती पुरवाल जैन समाज का इतिहास लिखा है।जो इस समाज का पहला और व्यवस्थित अध्ययन है। जिसमें उन्होंने श्रमपूर्वक अनेक बिखरे सूत्रों को संजोया है।

प्राचीन साहित्य में इस जाति के सिंह और धार दो गोत्रों की चर्चा मिलती है। इस सदी के पूर्वार्ध में सिरमौर, पांडे और सिंघई गोत्र प्रचलन में थे। सामाजिक व्यवस्था में प्रधान को सिरमौर, पौरहित्य कर्म करने वाले को पांडे और प्रबंधक का दायित्व निभाने वाले को सिंघई नाम से संबोधित किया गया।
 उ. प्र. में  प्रचलित कुछ गोत्र हैं इस प्रकार हैं - 1. सिरमौर, 2. पांडे, 3. सिंघई, 4. कोड़िया, 5. कड़सरिया, 6. सिंह, 7. धार, 8. पाढ़मी। कुछ अन्य गोत्र  1. केड़िया,2.अजमेरा या श्रीमोर हैं। काफी अनुसंधान के बाद इस बारे में जो विवरण जुट सका। उसके अनुसार अंतिम गोत्र सूची इस प्रकार है -
1. सिंह, 2. उत्तम, 3. सरावगी, 4. सेठ, 5. नारे, 6. तिलक, 7. धार, 8. सिरमौर (श्रीमोर या अजमेरा), 9. पांडे, 10. कौन्देय, 11. चौधरी, 12. केड़िया, 13. पाढ़मी, 14. कड़ेसरिया, 15 सिंह, 16. सिंघई।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें