बुधवार, 11 जनवरी 2023

खंडेलवाल जैन

खण्डेलवाल जैन समाज समस्त दिगम्बर जैन समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है । इस समाज ने अपने उद्भव काल से लेकर आज तक जैन धर्म और संस्कृति को समृद्ध कर दिगंबर जैन समाज को गर्वोन्नत किया है । इस समाज का वर्तमान जितना स्वर्णिम है ,उनका अतीत भी उतना ही गौरवशाली रहा है । उत्तर भारत में खण्डेलवाल जैन समाज का सभी क्षेत्रों में बहुधा वर्चस्व रहा है । उसके लाड़ले सपूत समाज की सभी गतिविधियों में भाग लेते रहे हैं और आज भी उसी गौरव को कायम रखे हुए हैं। खंडेलवाल जैन समाज राजस्थान, मालवा, आसाम, बिहार, बंगाल, नागालैंड, मणिपुर, उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों एवं महाराष्ट्र में बहुसंख्यक समाज रहा है और आज भी मुंबई, कलकत्ता, जयपुर, इन्दौर, अजमेर जैसे नगरों में उसकी बहुसंख्या है। इस समाज में अनेक आचार्य, मुनि, भट्टारक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी हुये हैं,जिन्होंने देश एवं समाज को प्रभावशाली मार्गदर्शन दिया है। सैकड़ों ,हजारों मन्दिरों के निर्माणकर्ता, प्रतिष्ठाकारक, मूर्ति प्रतिष्ठा कराने वाले अनेक धर्मनिष्ठ खंडेलवाल दिगंबर जैन समाज के रत्न हैं। खंडेलवाल समाज के लोग राज्य में प्रमुख और उच्च पदों पर पदस्थ रहे हैं और राज्य संचालन में सहयोगी रहे हैं। समाज में भी उनका बहुमान रहा है। इन्होंने सैकड़ों वर्षों तक जयपुर राज्य की अभूतपूर्व सेवा की एवं युद्ध भूमि में विजय-श्री का वरण किया। राजस्थान के सैकड़ों मन्दिर इसी समाज के द्वारा निर्मित है । अकेले जयपुर नगर से 200 से अधिक मन्दिरों का निर्माण इस समाज की अतीव धर्म-निष्ठा का उदाहरण है । सांगानेर, मोजमाबाद, टोडारायसिंह, लाडनूं, सुजानगढ़, सीकर के मन्दिरों के उन्नत शिखर आज भी उनकी गौरव गाथा कहते हैं। इस समाज की धार्मिक आस्था तथा व्रत उपवास, पूजा एवं भक्ति आदि कार्यों में रुचि से सारा दिगम्बर जैन समाज अनुप्राणित रहता है। इनके रीतिरिवाजों में श्रमण संस्कृति की झलक दिखाई देती है तथा उसका प्रत्येक सदस्य जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करता है । सारे देश में फैले हुए खण्डेलवाल जैन समाज संख्या की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है जो दस लाख के करीब है अर्थात् पूरे दिगम्बर जैन समाज का पांचवां हिस्सा है। खण्डेलवाल जाति का नामकरण खण्डेला नामक नगर के आधार पर हुआ है जो राजस्थान के सीकर जिले में ,सीकर से 45 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। खण्डेला के इतिहास की अभी पूरी खोज नहीं हो सकी है लेकिन श्री हर्ष की पहाड़ी पर जो पुरावशेष मिलते हैं उससे पता चलता है कि शैव पाशुपतों का केन्द्र बनने के पहिले यह नगर जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसका पुराना नाम खंडिल्लकपत्तन अथवा खण्डेल गिरि था। भगवान महावीर के 10वें गणधर मेदार्य ने खण्डिल्लकपत्तन में आकर कठोर तपस्या की थी ऐसा उल्लेख आचार्य जयसेन ने अपने ग्रन्थ धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति में किया है ।आचार्य जयसेन 11 वीं शताब्दी के महान साधक थे और अमृतचन्द्र वह सोमदेव की परंपरा के आचार्य थे ।

 "श्रीवर्धमाननाथस्य मेदार्यो दशमोऽजनि । गणभृद्दशधा धर्मो यो मूर्तो वा व्यवस्थितः || मेदार्येण महर्षिभिविहरता, तेये तपो दुश्चर। श्रीखंडिल्लक पत्तनान्ति करणाभ्यर्द्धिप्रभावात्तदा ॥ "

 खण्डेला का पूरा क्षेत्र ही अत्यधिक प्राचीन क्षेत्र रहा है । यहाँ पर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के एक अभिलेख में प्रसंगवश इस नगर का उल्लेख मिलता है। खंडेला के राजनैतिक इतिहास के बारे में शोध की काफी गुंजाइश है। प्राप्त विवरण के आधार पर यहाँ पर प्रारंभ में निरबाण चौहान (चौहान राजपूतों की एक शाखा) राजाओं का राज्य रहा है। हम्मीर महाकाव्य में भी खंडेला का नामोल्लेख है। महाराणा कुम्भा ने भी खंडेला पर अपनी विशाल सेना को लेकर आक्रमण किया था और यहां खूब लूटपाट की थी । सन् 1467 मे यहाँ उदयकरण का शासन था ऐसा वर्धमान चरित की प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है । रायमल खंडेला के प्रसिद्ध शासक रहे हैं और जो अपने मन्त्री देवीदास के परामर्श से मुगल सेना में भर्ती हुये ।अपनी वीरता एवं स्वामी भक्ति के सहारे मुगल बादशाह अकबर के कृपा पात्र बनकर उन्होंने खंडेला और अन्य नगरों की जागीर प्राप्त की थी । वे बराबर आगे बढ़ते रहे। रायमल जी के समय में ही खंडेला चौहानों के हाथों में से निकल कर शेखावतों के हाथों में आ गया था। विक्रम की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में जब महाराज खण्डेलगिरि खंडेला के शासक थे तब खंडेला नगर अपने पूर्ण वैभव पर था और उस समय यहां 900 की संख्या में जिनालय थे । हजारों परिवार तो कोटिध्वज थे। नगर के सभी निवासियों का वैभव उत्कर्ष पर था। उत्तर भारत में खंडेला नगर जैनों का प्रधान केन्द्र था लेकिन स्वयं महाराज खण्डेलगिरि जैन होते हुये भी शैव धर्म की ओर झुके हुए थे। क्योंकि उनके सभी मन्त्री और पुरोहित शैव थे और उनका यज्ञों में गहरी आस्था और विश्वास था ।

     एक समय प्लेग की महामारी के प्रकोप से जब खंडेला में हजारों लोग असमय काल के गाल में समाने लगे और जीवन रक्षा के लिए यहां से पलायन करने को विवश हो गये तो महाराज खंडेलगिरि के इस विषय में चिंतित होने पर उनके मंत्रियों ने उन्हें नरमेध यज्ञ का परामर्श दिया। धूर्त मंत्रियों और श्रमणद्वेषी पंडितों ने षड्यंत्रपूर्वक नगर के बाहर एक उद्यान में साधनारत जैन साधुओं को यज्ञ में जीवित ही होम दिया। भले इस जघन्य कार्य में महाराज खंडेलगिरि की सहमति नहीं रही लेकिन इससे उनकी बहुत अपकीर्ति हुई। जैन मुनियों पर हुए इस घोर उपसर्ग और नरमेध का समाचार जब आचार्य अपराजित जिनका अपर नाम यशोभद्राचार्य था,को प्राप्त हुआ तो वह इस नरमेध कांड को लेकर बहुत चिंतित हुए। उन्होंने अपने पूरे संघ को एकत्र कर इस विषय में उनके साथ गंभीर विचार विमर्श किया। आचार्य यशोभद्र ने सबकी सम्मति से इस असाधारण स्थिति से निपटने के लिए आचार्य जिनसेन को ऐसे पापाचार के उन्मूलन के लिए खंडेला भेजा। प्लेग के भंयकर प्रकोप के बीच आचार्य जिनसेन कुछ साधुओं के साथ खंडेला नगर आए और नगर के बाहर उद्यान में ठहर गये । उन्होंने नगर में रहने वाले श्रावकों को बुलाया और इस असाध्य महामारी से बचने के लिए नगर खाली कर नगर के बाहर एक गुढ़ा (उपनगर) में आकर रहने को कहा ताकि उनकी जीवन रक्षा हो सके। सभी श्रावकों ने आचार्य जिनसेन के आदेश को शिरोधार्य किया। आचार्य जिनसेन ने अपनी आराधना और तपोबल से चक्रेश्वरी देवी को प्रसन्न किया और उनसे उपनगर में रहने वाले लोगों की जीवन रक्षा की प्रार्थना की। चक्रेश्वरी देवी के आशीर्वाद से उपनगर में रहने वाले सभी लोगों को महामारी रोग से मुक्ति मिल गयी। इसी बीच स्वयं महाराजा खण्डेलगिरि भी प्लेग से ग्रस्त होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच गये। सब ओर से निराश,हताश होकर उन्होंने भी उसी गुढ़ा (उपनगर) में आश्रय लिया, जहां आचार्य जिनसेन श्रावकों के साथ विराज रहे थे । अपनी शरण में आए खण्डेलगिरि को आचार्य श्री ने रोगमुक्ति और धर्मानुरागी होने का आशीर्वाद दिया। स्वास्थ्य लाभ के पश्चात् कृतज्ञ महाराज खंडेलगिरि ने भादों सुदी 13 रविवार विक्रम संवत् 101 के शुभ दिन खंडेला में विशेष दरबार लगाया गया। सभी सामंतों एवं दरबारियों के साथ आचार्य-श्री जिनसेन को भी वहां आमंत्रित किया।अपने संघ के कुछ साधुओं के साथ आचार्य-श्री के वहां पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ।सभी ने आचार्य-श्री की भूरि भूरि प्रशंसा की और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया। आचार्य श्री ने महाराजा खण्डेलगिरि को उनके पूरे परिवार के साथ जैन धर्म में दीक्षित किया और अहिंसा धर्म का कट्टरता से पालन करने का नियम दिलाया। इस अवसर पर महाराजा खण्डेलगिरि के साथ 13 अन्य चौहान परिवारों के सामन्तों को भी जैन धर्म मे दीक्षित किया। ( 1 ) महाराजा खण्डेलगिरि ( 2 ) राजा श्रीभावस्यंध जी (3) राजा श्री पूरणचन्द्र जी (4) राजा श्री योमसिंहजी (5) राजाश्री अजबसिंह जी (6) राजाश्री अभयराम जी (7) राजा श्री नरोत्तम जी (8) राजा श्री झांझाराम जी (9) राजा श्री जसोरामजी (10) राजा दमतारिजी (11) राजा श्रीभूधरमल जी (12) राजा श्री रामसिंह जी (13) राजा श्री दुरजनसिंहजी (14) राजा श्री साहिमलजी ।

   ये सब महाराजा खण्डेलगिरि के परिवार के होने के कारण इन्हें भी राजा की उपाधि प्राप्त थी। इसलिए इन सबको जैन धर्म में एक साथ दीक्षित किया गया। सभी इतिहासकार इस बात पर एक मत है कि यशोभद्राचार्य के लघु शिष्य आचार्य जिनसेन ने खण्डेला जाकर वहां के राजा खण्डेलगिरि को जैन धर्म में दीक्षित किया तथा राजा के कुटुम्ब को प्रथम साह गोत्र प्रदान किया । उनके सामन्तों को भी उसी समय जैन धर्मानुयायी बनाकर  आचार्य जिनसेन द्वारा 14 गोत्रों की स्थापना की गयी। इस घटना के समय के सम्बन्ध में कुछ मतभेद अवश्य है। क्योंकि कुछ इतिहासकार इसे विक्रम सम्वत् 2 मानते है तथा कुछ सम्वत् 101 मानते है । 

   डॉ.कैलाशचन्द जी जैन ,उज्जैन वालों की मान्यता है कि खण्डेलवाल जाति का उद्भव सम्भवतः 8 वीं शताब्दी में हुआ हो क्योंकि इससे पूर्व का अभी तक कोई इतिहास नहीं मिल सका है। जब खण्डेलवाल जाति अधिक संख्या में हो गई तो उसने गाँवों के नाम से गोत्र स्थापित कर लिये। 

      पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने लिखा है कि जैन धर्म जाति प्रथा का अत्यन्त विरोधी रहा है लेकिन वह भी इस दोष से अपने की नहीं बचा सका । कहने के लिये इस समय जैन समाज में 84 जातियाँ है। लेकिन कुछ ऐसी भी हैं जो दो हजार वर्ष से पहले ही अस्तित्व में आ गई थी ।

    पं० भंवरलाल जी पोल्याका ने महावीर जयन्ती स्मारिका वर्ष 1974 में सम्वत् 1879 में लिपिबद्ध की हुई एक पाण्डुलिपि में वर्णित खण्डेलवाल जाति के इतिहास दिया है और फिर साह गोत्र की एक वंशावली उद्धृत की है । इसकेपश्चात् पंडित जी ने उत्पत्ति काल पर लिखा है कि पाण्डुलिपियों में निर्दिष्ट सम्वत् 1 ( एक ) विक्रम सम्वत् 1 न होकर हर्ष सम्वत् है जो विक्रम सम्वत् 662 वर्ष पश्चात् चला था । आगे चल कर आपने लिखा है कि इनसे विक्रम सम्वत् 2-3 आदि की संगति कैसे बैठे। ये यथार्थ मे 101, 102, 103 आदि है और बोलने में इनको 1-2-3 आदि बोलते है । पोल्याका जी के अनुसार विक्रम सम्वत् 901 मे खण्डेलवाल जाति की उत्पत्ति हुई थी । आचार्य जिनसेन द्वारा खण्डेला राज्य के सभी राजपूतों ने जैन धर्म में दीक्षा प्राप्त की थी। इन राजपूतों की संख्या तीन लाख थी । इसलिये सभी राजपूत खण्डेलवाल जैन कहलाने लगे और उन्होंने हिंसा वृत्ति छोड़कर श्रावक धर्म के पालन का व्रत लिया । खण्डेलवाल जैन जाति जिसकी वर्तमान में वैश्य जाति में गणना की जाती है प्रारम्भ में क्षत्रिय थी । विगत दो हजार वर्षों से श्रावक धर्म का पालन करने और व्यापार वाणिज्य में संलग्न रहने के कारण वह वैश्य जाति में मान ली गयी । खण्डेलवाल जाति में खण्डेला में रहने वाले दूसरे जैन सम्मिलित नहीं थे । लेकिन वे किस जाति के रहे इसका कोई विवरण नहीं मिलता। कदाचित वे भी कालांतर में खण्डेलवाल जैनों में सम्मिलित कर लिये गये हों लेकिन इसकी कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती । यद्यपि खण्डेला नगर में जैन धर्म का पूर्ण प्रभाव था । महाराजा खण्डेलगिरि के जैन धर्म में दीक्षित होने के पूर्व भी वहां पर्याप्त संख्या मे जैन धर्मावलम्बी और जिनालय थे । वे सभी भगवान महावीर के 10वें गणधर मेदार्य के खण्डेला क्षेत्र में प्रभाव के कारण वहां जैन धर्मानुयायी बने होंगे लेकिन जब महाराजा खण्डेलगिरि ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो जैन धर्म वहां का राजधर्म बन गया इसलिये वहां जैन धर्म की अतिशय प्रभावना होने लगी । सैकड़ों की संख्या में मुनियों का विहार होने लगा और प्रथम पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समारोह भी आचार्य जिनसेन के सानिध्य में संवत् 101 वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न हुआ । इसके पश्चात् इसके आगे भी वहाँ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा समारोह आयोजित होते रहे । नये मन्दिरों का निर्माण, मूर्तियों की प्रतिष्ठा होती रही और खण्डेला के सारे क्षेत्र में जैन शासन की प्रभावना होती रही ।खण्डेला नरेश और उनके सामन्तों के परिवार सैकड़ों वर्षों तक अपने-अपने क्षेत्र में निवासरतर रहे और व्यापार व्यवसाय तथा राज्य प्रशासन में सहयोग देते रहे । खंडेला और उसके आसपास के ग्रामों में नवदीक्षित खंडेलवाल जैनों का वर्चस्व कायम हो गया और उनकी गणना वहां के संभ्रांत नागरिकों में होने लगी। राजाओं एवं जागीरदारों के वे ही प्रमुख व्यवस्थापक थे । राज्य के बड़े बड़े अधिकारियों को जहाँ दीवान या मन्त्री के नाम से पुकारा जाता था वहीं जागीरदारों के प्रमुख व्यवस्थापकों को कामदार कहा जाता था। कामदारा भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलता था । इनके परिवार बढ़ने पर इन्हें रोजगार के अन्य साधन अपनाने पड़े और जब खेती, व्यापार एवं सेवावृत्ति से भी काम नहीं चला तो आजीविका के लिए उनको बाहर जाना पड़ा। देशांतर में जाकर भी उन्होंने सभी क्षेत्रों में अपने झंडे गाड़े और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

    खंडेलवाल समाज के लोग सीकर, लाडनूं, नागौर,सांभर,नारायणा,चित्तौड़ , अजमेर, घटियाली, मालपुरा,आमेर, सांगानेर, इंदौर, उज्जैन, रतलाम, बड़नगर, लश्कर, मुंबई, नागपुर,वाशिम, वर्धा, अकोला,भिलाई, दुर्ग, छिंदवाड़ा, औरंगाबाद, हैदराबाद, दिल्ली आगरा, बिहार, बंगाल,असम, नगालैंड, मणिपुर यानी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक आबाद हैं और अपने -अपने क्षेत्र में अग्रणी हैं। खण्डेलवाल दिगम्बर जैन समाज 84 गोत्रों में विभाजित है। इन गोत्रों का इतिहास भी उतना ही रोमांचक है जितनी उसकी उत्पत्ति है। लेकिन इतना अवश्य है कि प्रारम्भ से ही खंडेलवाल समाज में गोत्रों को अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त रही इसीलिये खण्डेलवाल जैन बन्धु अपने नाम के आगे गोत्र-नामों का उपयोग करते रहे है और इन्होंने जैन लिखने के स्थान पर गोत्र लिखने को अधिक वरीयता दी । कदाचित जयपुर, अजमेर, इन्दौर जैसे नगरों में जहां खण्डेलवाल समाज के हजारों परिवार निवास करते हैं और उनमें विभिन्न गोत्र वाले श्रावक शामिल हैं इसलिए सुस्पष्ट पहचान के लिये इस समाज में गोत्रों का उपयोग होने लगा हो । 

   अकारादि क्रम से उनकी गोत्र सूची निम्न प्रकार है-

 1. अजमेरा ,2. अनोपडा,3 अरडक,4. अंहकारया,5. कडवागर,6. कटारिया,7. काला,8. कासलीवाल,9. कुलभण्या,10. कोकराज,11. गदिया,12. गंगवाल,13. गिदोड्या,14. गोतवंशी ,15. गोधा - ठोल्या,16. चांदुवाड,17. चिरकन्या,18. चौधरी,19. चौवर्या,20. छाबड़ा,21. छाहड़,22. जगराज्या,23. जलभण्या / जलवाण्या,24. झांझरी,25. टोंग्या,26. दगड़ा,27. दरडोद्या,28. दुकड्या, 29. दोसी,30. नरपत्या,31. निगद्या,32. निगोत्या,33. निरपोल्या,34.पापडीवाल,35.पापल्या,36.पहाड़िया,37.पाटणी,38पाटोदी,39.पांडया-झीथर्या,40. पिंगुल्या,41. पीतल्या,42. पोटल्या,43 बज ( श्रामण्या ),44. बज ( मोहण्या ),45. बंब,46. बाकलीवाल,47. बिलाला,48. बिलाला दुतिक,49. बोरखण्ड्या,50. बोहरा,51. बैनाडा,52. भडसाली,53. भसावड्या,54. भागड्या,55. भांवसा,56. भूवाल,57. भूलाण्या,58. मूंछ/भौंच,59. मूलराज,60. मोठ्या, 61. मोदी,62. मोलसर्या,63. राजभद्र,64 राजहंस्या,65. रारा,66. राउंका/रांवका,67. रावत्या,68. लटीवाल,69. लुहाड्या,70. लोहट / लावट,71. लोहंग्या,72. वनमाली,73. विनायक्या,74. वैद,75. सरवाड्या,76. साखूण्या,77. सांभर्या,78. साह,79. सुरपत्या,80. सेठी,81. सोगाणी,82. सोहनी/सोनी,83 हलद्या, 84. क्षेत्रपाल्या 

   उक्त गोत्रों के अतिरिक्त विभिन्न इतिहास लेखकों ने 84 गोत्र नामावली में जिन अन्य गोत्रों को और सम्मिलित किया है उनके नाम निम्न प्रकार है-

    1.बांदरया 2. बिरल्या 3. ठग 4. पांवड्या 5. सेठी दूजा,6. लावठो,7. बबरा,8. मोल्या,9. पांड्या,10. पांड्या दूजा,11. बिबला,12. बिव,13. कुरल्या,14. सोहनी,15. कीकरवा,16. जेसवाल,17. वावसया,18. निरगन्धा। 

   उक्त गोत्रों के अलावा प्रशस्तियों में कुछ अन्य गोत्रों का भी उल्लेख मिला है उनके नाम निम्न प्रकार है- 

1. साधु गोत्र 2. ठाकुल्यावाल 3. मेलूका 4. नायक 5. खाटड्या 6. सरस्वती गोत्र 7. कुरकुरा 8. वोटवाड 9. काटरावाल 10 भसावड्या 11. बीजुवा 12 कांधावाल 13. रिन्धिया 14 सांगरिया ।

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