शनिवार, 27 जनवरी 2024

पटनागंज रहली




 सुनार (स्वर्णभद्र तथा देहार नदियों के संगम पर अवस्थित रहली नगर सागर जिले के अंतर्गत आता है । यह सागर के दक्षिण पूर्व की ओर 42 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । पक्की सड़क द्वारा जबलपुर, सागर, देवरी तथा गढ़ाकोटा से जुड़ा हुआ है। सुनार नदी प्राचीनतम महत्व की नदी है तथा प्रो. एस.एम. अली ने मत्स्यपुराण में उल्लिखित शुनी नदी के रूप में उसकी पहचान की है। रहली के निकट ग्राम कड़ता की खुदाई के दौरान प्राप्त अवशेषों से तथा रानगिर मार्ग पर देहार नदी की घाटी में प्राप्त शैलचित्रों से यह ज्ञात होता है कि रहली का क्षेत्र प्रागैतिहासिक युग से ही मानवीय गतिविधियों का केंद्र रहा है। यहाँ उत्खनन में पुरापाषाणकालीन तथा मध्यपाषाणकालीन उपकरण भी मिले हैं। सुनार नदी के तट पर एक ही परकोटे में अतिप्राचीन 30 गगनचुंबी जिनालयों की लंबी श्रृंखला है। बताते हैं कि इस क्षेत्र पर जब मुगल शासक औरंगजेब ने हमला किया तो मधुमक्खियों के हमले से मुगल सेना के पैर उखड़ गए थे और उन्हें वापस लौटना पड़ा। यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से भी सम्पन्न रहा है। रहली जब मराठा शासकों के आधिपत्य में रहा तब यहाँ सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक कार्य हुए। यहाँ का सांस्कृतिक गौरव वह सूर्य मंदिर है, जो टीकमगढ़ के मढ़खेरा के सूर्य मंदिर का समकालीन है। यह सुनार नदी के पश्चिमी तट पर अवस्थित है तथा यह लगभग 1200 वर्ष पुराना है, जिसे प्रतिहारों ने निर्मित किया था।सुनार नदी के दायें तट पर अवस्थित पटनागंज में बना हुआ जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र माना जाता है। कहा जाता है कि यह अतिशय क्षेत्र लगभग 800 वर्ष प्राचीन है। वास्तव में यह विभिन्न मंदिरों का एक समूह है, जहाँ जैन तीर्थकरों की मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । यह उत्तर भारत की नागर शैली में निर्मित है। इस अतिशय क्षेत्र को प्राचीनकाल से ही पटनागंज कहा जाता है।पूज्य क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी सन् 1944 में जब रहली क्षेत्र पधारे तो अतिशय क्षेत्र पटनागंज की दुरवस्था देखकर बहुत दु:खित हुए। उन्होंने पटनागंज के जीर्णोद्धार का दृढ़ निश्चय किया। उन्होंने संपूर्ण जैन समाज को एकसूत्र में बांधकर वहां जीर्णोद्धार का श्रीगणेश कराया और उसे भव्यता प्रदान की।एक ही परकोटे में एक साथ 30 भव्य जिनमंदिरों में प्रतिष्ठित अतिशयकारी प्रतिमाओं के समूह में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की अद्वितीय प्रतिमा उल्लेखनीय है। भगवान मुनिसुव्रत नाथजी की प्राचीनता की दृष्टि से भारत की सबसे विशाल पद्मासन प्रतिमा जो कत्थई वर्ण में है और अपने आप में अनूठी है।मंदिर क्र. 3 जो मुनि सुव्रतनाथ भगवान को समर्पित है, ईस्वी सन् 1488 में निर्मित है। यह तथ्य प्रतिमा की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट होता है। इसी प्रकार मंदिर क्र. 4 भी लगभग 400 वर्ष पुराना है। मंदिर क्र. 26 व 27 क्रमशः ईस्वी सन् 1523 तथा 1491 में निर्मित हैं । इन मंदिरों का निर्माण विभिन्न कालखण्डों में हुआ है तथा इनका निर्माण जैन श्रेष्ठियों द्वारा कराया गया है। मंदिर के सभागृह में भित्तिचित्रों के बीच एक दोहा अंकित है, जिससे यह विदित होता है कि इसका निर्माण सेठ नारायणदास तथा उनकी धर्मनिष्ठ माँ केशरबाई ने कराया था। इसी मंदिर में दशवीं शताब्दी की दो प्रतिमाएँ एवं एक प्रतिमा अन्य वेदी पर स्थापित है। साथ ही साढ़े तीनफुट उत्तुंंग मूंगावर्ण की भगवान शांतिनाथ जी की अलौकिक प्रतिमा भी इसी मंदिर में सुशोभित है। प्राचीन रचनाओं में नंदीश्वर द्वीप और पंचमेरु जिनालय के साथ ही समवसरण की रचना भी अतिप्राचीन कला से परिचित कराती है। अनुपम और अनूठी रचनाओं में दुनिया का सबसे बड़ा सहस्रकूट चैत्यालय जो स्थापत्य का अद्भुत नमूना है, यहां अवस्थित है।इस 9 फुट ऊँचे अति प्राचीन सहस्रकूट चैत्यालय में 32 फुट की गोलाई में खड्गासन और पद्मासन मुद्रा में 1008 अरहंत प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।केशरवृष्टि आदि अनेक अतिशययुक्त इस प्राचीन क्षेत्र में विराजित भगवान पार्श्वनाथ की एक हजार आठ सर्प फणों से युक्त संसार की सबसे विशाल सहस्रफणी प्रतिमा यहां स्थित है। भगवान महावीर स्वामीजी की (प्राचीनता की दृष्टि से) भारत की सबसे विशाल पद्मासन प्रतिमा पटनागंज के बड़े बाबा के रूप में विद्यमान है। विशेष बात यह है कि प्रतिष्ठित स्थल पर ही विशाल चट्टान में आसन सहित विशालकाय प्रतिमा उत्कीर्ण होने पर जब इसे अन्यत्र ले जाना संभव नहीं हो सका, तो इसी स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण किया गया, जो कि सदियों से अपनी अतिशययुक्त विशेषताओं के कारण आस्था का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। भारत की सबसे विशाल भगवान महावीर स्वामी की 13 फुट उत्तुंग इस पद्मासन प्राचीन प्रतिमा के दर्शन कर धर्मावलम्बी श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएँ पूर्णकर सदियों से अपने जीवन को सफल और धन्य करते आ रहे हैं। बड़े बाबा की इस विशालतम प्राचीन और अतिशयकारी प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक विशेष अवसरों पर ही सम्पन्न होता है। जैन मंदिरों में अनेक भित्तिचित्र बने हुए हैं,जो बहुत ही सुंदर और महत्वपूर्ण हैं लेकिन संरक्षण के अभाव में और उपेक्षा के कारण अब वे नष्ट होने के कगार पर हैं। कलात्मकता की दृष्टि से ये अंकन महत्चपूर्ण हैं जो अठारहवीं सदी के बने हुए प्रतीत होते हैं और इस बात की पुष्टि उस समय के स्थापत्य व पुरुष आकृतियों के द्वारा पहने गए परिधानों से होती है। इन अंकनों में पद्मासन की मुद्रा में बैठे तीर्थंकर, संभवतः सम्मेदशिखरजी के दर्शन करने के लिए जाते जैन श्रेष्ठि, सम्मेदशिखरजी व अन्य जैन मंदिरों का स्थापत्य, मयूर तथा विभिन्न आकल्पन दिखाई देते हैं।जनुश्रुतियों के अनुसार रहली चौदहवीं शताब्दी में फौलादी अहीरों के द्वारा बसाया गया था, जो बाद में राजा छत्रसाल बुन्देला के आधिपत्य में आया। उन्होंने ईस्वी सन 1731 में पेशवा बाजीराव को इसे दे दिया तथा मार्च 1818 में यह मेजर रोज़ के अधिकार में चला गया। सन 1857 में बुन्देला विद्रोहियों ने इस पर अधिकार कर लिया, जिसे बाद में अंग्रेजों ने पुनः हस्तगत कर लिया।रहली में अहीरों और पेशवाओं के समय के खंडहर आज भी बिखरे पड़े हैं। यहाँ के जैन मन्दिरों में भगवान आदिनाथ, भगवान भरत तथा भगवान बाहुबली की सुंदर मूर्तियाँ हैं।10वीं सदी की दो प्रतिमाएँ भी यहाँ विद्यमान हैं।  

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