सोमवार, 29 जनवरी 2024

कोहबर

कोहबर' संस्कृत शब्द कोष्ठ-वर का तद्भव रूप है। ऐसा स्थान जहाँ विवाह  के अवसर पर कुलदेवता की स्थापना की जाती है- कौतुकागार या 'कोष्ठवर' कहा जाता है । इसे कौतुकागार इसलिए कहते हैं क्योंकि वहां वर-वधू के साथ अनेक प्रकार का मनोविनोद और हास परिहास किया जाता है। कोहबर घर के उस पूरे कमरे को भी कहा जाता है जिसमें विशिष्ट आरेख द्वारा कुलदेवता की स्थापना की जाती है। कतिपय विद्वान कोहबर शब्द की व्युत्पत्ति 'कुक्षिभर' शब्द से मानते हैं। कुक्षिभर अर्थात कोख भरने की मनोकामना। हिंदी पट्टी में वर-वधू दोनों के घरों में कोहबर की रचना की जाती है। कई प्रान्तों में कोहबर को ' माय माता' तथा ' मेरू' भी कहा जाता है। वरहिया जैन समुदाय में कोहबर को वीध(प्रायः वीध बरही)कहकर संबोधित करते हैं।वीध शब्द संस्कृत वीध्र का तद्भव रूप है ,जिसका वाच्यार्थ -आकाश, अग्नि, वायु, निर्मल, पवित्र और शुद्ध है।कोहबर निर्माण की विशिष्ट संरचना लोक मानस द्वारा स्वीकृत है। कुमकुम की तेरह बिन्दी रखी जातीं हैं जो एक बड़े चतुर्भुज के भीतर तेरह त्रिभुजों में स्थित होते हैं। सभी त्रिभुज सात आड़ी रेखाओं पर बने होते हैं। चतुर्भुज की ऊपरी रेखा पर तीन खानों में नौ-नौ त्रिभुज होते हैं जो स्त्री -पुरुष के बोधक हैं। कोहबर का आलेखन चावल के आटे के घोल, गेरू और समी की हरी पत्तियों के रंग से किया जाता है। आजकल बाजार के रंगों का भी प्रयोग होने लगा है। वरहिया समुदाय में गेरू के लाल रंग से और नारियल की नरेली जलाकर तैयार किए गए काले रंग से यह अंकन किया जाता है।कोहबर के अंकन में सुंदरता लाने के लिए हल्दी-सिन्दूर का उपयोग किया जाता है। हल्दी-सिन्दूर मांगलिक रंग है जिनके प्रयोग से कोहबर में सौंदर्यवृद्धि के साथ ही पवित्रता का भी बोध होता है । हरे बाँस की पतली लकड़ी से कूंची (तूलिका) बनाई जाती है। कूंची के अभाव में छोटी-पतली लकड़ी के एक सिरे में रुई लपेटकर तूलिका तैयार की जाती है। चूने या सफेद खड़िया मिट्टी से पुती दीवाल पर जहाँ 'कोहबर' बैठाना होता है, सर्वप्रथम चावल के आटे के घोल से घर की बहन या बेटी नहा-धोकर पुताई करती है। गेरू के गाढ़े घोल से कूँची के द्वारा 'कोहबर' का आरेख बनाया जाता है। छठी एवं बरही व कोहबर में हल्दी -सिंदूर के साथ कुमकुम की बिन्दी रखी जाती हैं।  छठी एवं बरही और कोहबर के आलेखन से सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के अभिप्रायों की पूर्ति होती है। कोहबर की रचना विधि में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। नहा-धोकर पवित्र तन-मन से कोहबर का आरेख खींचा जाता है और उसमें रंग भरा जाता है। आरेख खींचने वाली बहन-बेटी के तन -मन की पवित्रता उसकी कुशल क्षेम का संवर्द्धन कर उसके भीतर श्रेष्ठ विचारों को जन्म देती है।कोहबर का मनोरम चित्र घर के बालक-बालिकाएँ देखती हैं। उनके भीतर कला प्रेम पैदा होता है। रंगों के प्रभाव से बाल-मन न केवल प्रफुल्लित  होता है अपितु बालक-बालिकाओं का आह्लादित मन सौन्दर्य बोध और काव्य बोध की अनगढ़ अनुभूति से भर जाता है। बाल पीढ़ी के विकास में कोहबर चित्रण का यह महत्वपूर्ण अवदान है । कोहबर की आकृति त्रिभुज और चतुर्भुज के संयोग से बनती है। इससे बच्चों को रेखागणितीय बोध होता है। उनकी रचनात्मक क्षमता बढ़ती है। कोहबर चित्रण की उपादेयता का यह सामाजिक पक्ष उल्लेखनीय है। कोहबर में वर को लहकौर खिलाने की प्रथा है। लहकौर यानी छोटा-सा कौर (ग्रास) । कन्या की सहेलियाँ, साली, सलहजें दूल्हे को पूड़ी-मिठाई आदि के छोटे -छोटे कौर खिलाती हैं या खाने का अनुरोध करती हैं। इस प्रथा के पालन से दूल्हे के खाने-पीने की संस्कृति का मूल्यांकन किया जाता है। साथ-साथ हास-परिहास भी चलता है। कहीं -कहीं पर कुछ अन्य प्रथाएँ भी प्रचलित हैं। दूल्हे की सालियाँ बड़ी चतुराई से दूल्हे का जूता गायब कर देती हैं और कुछ फिरौती लेकर वापस करती हैं । यह विनोद दूल्हे की सतर्क बुद्धि के परीक्षण के लिये किया जाता है।कोहबर क्षेत्र- विशेष के लोकमानस की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है और जिसमें मानवीय भावनाओं, सामाजिक आध्यात्मिक चिंतन के साथ रंगों और रेखाओं का अद्भुत समन्वय दिखता है। इसका सृजन वर-वधू के संरक्षण और कल्याण की दृष्टि से होता है जिससे वैवाहिक जीवन में स्वस्थ प्रवृत्तियों एवं जीवन दृष्टि के निर्माण का धरातल तैयार किया जा सके। कोहबर चित्रों में लोक जीवन का आदर्श एवं उसके प्रति आशावादी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का भाव और निष्काम कर्म की महत्ता कोहबर चित्रों की पृष्ठभूमि में है।कोहबर का वर्णन तुलसीदास के रामचरितमानस में मिलता है, बाण के हर्षचरित में भी इसकी चर्चा मिलती है।कला एवं कविता में सूक्ष्म सौंदर्य को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। प्रतीकों के बिना सूक्ष्म सौंदर्य की अभिव्यक्ति असंभव है। इस लिहाज से कोहबर को चित्रलिपि भी माना जा सकता है और शायद इसी वजह से कोहबर ‘बनाना’ नहीं ‘लिखना’ कहा जाता है। कोहबर लिखना केवल एक भाव का उद्घाटन ही नहीं है, वरन् गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर रहे वर-वधू को एक सफल और सार्थक जीवन जीने के अवबोधन का सृजनात्मक उद्यम है।कोहबर चित्र शुभ-लग्न, दिन और समय का विचार कर पूर्व या पश्चिमाभिमुख  बनाने की प्रथा है जिसे जानकार घर की बेटी, बहन या बुआ बनाती हैं। कोहबर पूर्ण होने पर नेग देने की भी परंपरा है।विवाह उपरांत कोहबर चित्रों को एक-सवा माह बाद किसी शुभ मुहूर्त में उठा देने या मिटा देने की परंपरा है।कहीं-कहीं कोहबर में बांस, पत्र, पुष्प, पेड़-पौधे, सूर्य-चंद्र, पशु-पक्षी, देवी-देव एवं वर-वधू के साथ कलश, ओखली और डोली-कहार आदि का चित्रण किया जाता है। इन चित्रों के साथ हाथ का थापा देने की भी परंपरा है। इसके लिए सबसे पहले चौकोर या आयताकार दीवार पर एक चित्राधार तैयार किया जाता है। आधार चौरठ अर्थात पिसी हुई चावल के लेप से तैयार किया जाता है। तैयार आधार पर गेरू से दुहरी रेखाओं (कहीं-कहीं इकहरी) का प्रयोग कर एक सुसज्जित कोहबर चित्र का रेखांकन तैयार किया जाता है और फिर उनमें मुख्यत: लाल, हरा, पीला और गेरूआ रंग भरा जाता है।कोहबर में “पंचांगुलांक” (खुली हाथ की हथेलियों का थापा) प्रतीक वर-वधू के जीवन में कर्म के महत्व को प्रदर्शित करने के साथ उसमें पंच-तत्व, पंच-देव,  पंच-महायज्ञ, पंच-परमेष्ठि के विशिष्ट अर्थ में विवक्षित संदेश निहित होता है। कहीं-कहीं पक्षी युगल और मीन युगल का अंकन वर-वधू के प्रतीक रूप में माना जाता है जो वर-वधू के जीवन में प्रेम,साहचर्य और प्रसन्नता की कामना का प्रतीकात्मक निरूपण है। मछली को उर्वर प्रजनन क्षमता का प्रतीक मानते हैं। इस कारण मछली का अंकन शुभ माना जाता है।कोहबर में सप्तमातृकाओं की पूजा की लोक प्रचलित मान्यता है ।ये सात देवियों जिन्हें बहन कहा जाता है, कोहबर में स्थान पाती हैं। इसमें “मायर” नाम का एक प्रतीक भी अंकित किया जाता है जिसमें ऊपर की ओर पांच आयताकार चिह्न बनाए जाते हैं जो नीचे से ऊपर छोटे होते जाते हैं। यह एक तरह का ज्यामितीय अंकन है जो सामान्यतः तालाब या पोखर के किनारे मंदिर का प्रतीकात्मक रूप बनाकर पूजा करने की लोक प्रचलित प्रथा का अनुसरण लगता है। मायर को भी एक देवी ही माना जाता है। मायर शब्द माय या मां शब्द का लोकरूप है जो अपनी महत्ता स्पष्ट करते हुए कोहबर में स्थान पाता है। इनके साथ ही कोहबर में श्रृंगार की सामग्री, शीशा-कंघी, सिंघोरा इन सभी का अंकन वधू के सौभाग्य और उनकी जीवन-सौंदर्य के प्रतीक के रूप में किया जाता है।साथ-ही-साथ जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जैसे सिलबट्टा, ओखली-मूसल का भी अंकन किया जाता है। प्रकृति में व्याप्त छोटे-छोटे जीव-जंतु जैसे सांप, गोजर(कनखजूरा), बिच्छू इत्यादि का अंकन भी इसी भाव से होता है कि आप सभी विवाह के साक्षी हों, उन्हें आशीर्वाद दें और किसी भी रूप में नव-दंपत्ति को हानि नहीं पहुंचाएं। कोहबर में इसी भाव से आंधी-तूफान तक को बांध देने की प्रथा है। कोहबर में डोली-कहार का अंकन अनिवार्य रूप से होता है।
कोहबर के चित्रों का विषय सामान्यत: प्रजनन, स्त्री -पुरुष संबंध होता है, जिनका प्रतिनिधित्व पशु -पक्षियों, टोने-टोटकै के ऐसे प्रतीक चिहों द्वारा किया जाता है, जो वंश वृद्धि के लिये प्रचलित एवं मान्य हैं जैसे-बांस, हाथी, कछुआ, मछली, मोर, सांप, कमल या अन्य फूल  इत्यादि। वधू के माता-पिता पाणिग्रहण के समय घी-तेल की जो धार बहाते हैं वह वधू के निरंतर और अखंड सौभाग्य के लिए होती है।कोहबर अंकन के प्रसंग में इससे जुड़ी एक अन्य 'मौरते' लिखने की प्रथा का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा ।इस प्रथा में जब बरात कन्यापक्ष के घर चली जाती है, तब घर की महिलायें कुलदेवता के स्थान पर व मंदिर जाती हैं। वहाँ वे मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर दीवार पर गेरू से तैयार किए रंग से एक-एक चतुर्भुज बनाती हैं और इस चतुर्भुज के ऊपर बीचोंबीच एक-एक त्रिभुज बना देती हैं । इसे 'मौरते लिखना' कहते हैं। 'मौरते' लिखना एक लोकरीति है। और ऐसा प्रतीत होता है कि ये मानव-सृष्टि के मूल पुरुष और मूल स्त्री के परिणयसूत्र में बंधने के स्मृति के प्रतीकात्मक अवशेष हैं ।जब वधू  विवाह के पश्चात ससुराल आती हैं, तब उसी दिन या किसी दूसरे दिन, वर-वधू दोनों को 'देवती- देवता' पूजने के लिए कुलदेवता के स्थान पर व मंदिर भेजा जाता है। उनके साथ में घर परिवार की अन्य स्त्रियां भी रहती हैं। जब वर-वधू मंदिर पहुँचते हैं तो दोनों ' गठजोरा' पकड़ लेते हैं और अपने दोनों हाथों को हल्दी में डुबोकर मंदिर के द्वार के दोनों 'कौरों' पर (क्रोड=द्वार की इधर-उधर की दीवार का वह भाग जिस पर किबाड़ खुलने पर सट जाते हैं) 'हाथे' छापते हैं। ये हाथे(हस्तछाप) दरवाजे के दाहिनी ओर एक-एक एवं बायीं ओर एक वर का दो वधू के इस प्रकार तीन हाथे छापे जाते हैं। ये हाथे पूर्व में बनाये गये 'मौरते' के ऊपर दीवार पर लगवाये जाते हैं।

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