मंगलवार, 30 जनवरी 2024

बजरंगगढ़ अतिशय क्षेत्र


 

बजरंगगढ़ की स्थापना पूर्वी मालवा में गुना के निकट राघौगढ़ के शासक चौहान खींची वंश के राजा जयसिंह  (1797-1818 ई.) ने की थी। यह राघौगढ़ राज्य की दूसरी राजधानी थी । झारकोन किले के परिसर में स्थित यह नगर अतीत में जयनगर के नाम से जाना जाता था।राजा जयसिंह खींची ने इसका नाम अपने आराध्य बजरंगबली के नाम पर बजरंगगढ़ रखा। बजरंगगढ़ का किला प्राचीन है जो एक ऊंची पहाड़ी पर 72बीघे में फैला हुआ है । राजा जयसिंह ने इसका नवनिर्माण कराया था। पहले यहां यादवों का प्रभुत्व रहा है।इस किले में मोतीमहल, दरबारी बैठक, रनिवास, बजरंग मंदिर ,रामबाण तोप तथा राजा धीरजसिंह का चबूतरा है, जो दर्शनीय है। किले में अनेक कुण्ड भी हैं। यहीं श्री जगनेश्वर मंदिर तथा राजा जयसिंह के नाम का तालाब भी है तथा राम मंदिर, गणेश मांदिर, गोपाल मंदिर तथा छतरियां भी हैं। बजरंगगढ़ के किले से दो कि.मी. की दूरी पर पश्चिम दिशा में बीस भुजा देवी का मंदिर है जहां क्वार तथा चैत्र मास में नवदुर्गा का मेला लगता है। इस नगर में राजा जयसिंह ने एक टकसाल की स्थापना की थी,जहाँ सोने-चॉंदी व ताम्बे के सिक्के ढाले जाते थे। इन सिक्कों को जयसिंह शाही सिक्के कहा जाता था। यहाँ उन्होंने अपनी एक शिकारगाह भी स्थापित की थी। जयसिंह साहित्यिक अभिरुचि के व कलाप्रेमी शासक थे। उन्होंने प्रतापशाही जैसे कवियों को संरक्षण दिया।जिन्होंने जयसिंह रासो नामक काव्य रचना की। उन्होंने ईस्वी सन् 1794 में प्रख्यात ज्योतिर्विद वराहमिहिर के ग्रंथ वृहदजातक का हिन्दी पद्यानुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कीर्ति कौमुदी नामक ग्रंथ की रचना की। राजा जयसिंह के समय में ही 'राघौगढ़ की होरी रची गई, जो बाद में राघौगढ़ का राज्यगान बन गई। अतिशय क्षेत्र बजरंगगढ़ लगभग 1200 वर्ष पुराना है, जो गुना जिले के पश्चिम में गुना-आरोन- सिरोंज मार्ग पर स्थित है। यह स्थान भगवान शांतिनाथ (18 फीट), कुंथुनाथ (10 फीट, 9 इंच) और अरहनाथ (10 फीट, 9 इंच) की खड्गासन (खड़ी मुद्रा) वाली आकर्षक चमत्कारी मूर्तियों के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। जैन श्रेष्ठि श्री पाड़ाशाह ने मुख्य प्राचीन मंदिर का निर्माण विक्रम सवत 1236 (1181) मे करवाया था। एक किंवदंती के अनुसार श्री पाड़ाशाह को यहां पारस पत्थर प्राप्त हुआ था, जिसके कारण उन्होंने उससे बनाए गए सोने से इस मंदिर का निर्माण कराया। बजरंगगढ़ के शांतिनाथ मंदिर में अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां भी हैं। इसे अतिशय क्षेत्र भी कहा जाता है ।ऐसी मान्यता है कि यहाँ पूजा के लिए स्वर्ग से देवता आते हैं तथा यहाँ के अनेक व्यक्तियों ने अर्धरात्रि  में संगीत सुना है। यह भी मान्यता है कि विक्रम संवत 1943 (1886 ई.) में कुछ व्यक्तियों ने इन मूर्तियों को जब नष्ट करने का प्रयास किया तब अचानक यहाँ अग्नि प्रज्वलित हो गई। जिससे भयभीत होकर  वे अपराधी भाग गए।बजरंगगढ़ का नवनिर्मित जैन मंदिर 28 हजार वर्ग फुट में बनाया गया है । मंदिर की नींव 12-18 फुट गहरी है।इस मंदिर में रिइन्फोर्समेंट के लिए सरिए का इस्तेमाल नहीं हुआ है और लगभग 80 फीट घेरे वाला इसका पूरा गुंबद सिर्फ ईटों से बना है। किसी पिलर या पत्थर का कोई सहारा नहीं है बल्कि पूरा ढांचा ईंट, बजरी व सीमेंट के बल पर  टिका हुआ है। इसी तरह हॉल की 34 फीट चौड़ी छत भी बिना किसी सहारे के टिकी है। यह भी सिर्फ ईट से बनी हुई है।  करीब 3 करोड़ की लागत से इसका मूल ढांचा बनकर तैयार हो चुका है। सपाट छतों से लेकर गोल गुंबद तक सभी ईंट,बजरी और सीमेंट से बने हैं। इन ढांचों को अपनी जगह टिकाए रखने के लिए सदियों पुरानी आर्क या मेहराब तकनीक का इस्तेमाल हुआ है। इस पुरानी तकनीक से बने किसी भी ढांचे की उम्र 400 से 500 साल तक रहती है। जबकि आरसीसी का ढांचा 100 साल से ज्यादा नहीं टिकता। संप्रति मंदिर निर्माण प्रगति पर है।इसका निर्माण मुनिपुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से हो रहा है।यहां स्थित अन्य समवशरण जिनालय दर्शनीय हैं।मुख्य बाजार में स्थित भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित जिनालय का निर्माण श्री जीतूशाह द्वारा कराया गया है तथा दूसरे का निर्माण श्री हरिश्वन्द्र तारक ने करवाया है। तारक जी के मंदिर में आकर्षक भव्य चित्रात्मक त्रिकाल चौबीसी तैयार की जा रही है। बजरंगगढ़ में कार्तिक शुक्ल पंचमी को वार्षिक मेला लगता है। यहीं भगवान शांतिनाथ के जन्मदिवस को मनाने हेतु तप एवं मोक्ष कल्याणक उत्सव चौदह वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान में पुराने मंदिर का स्वरूप बड़ी सीमा तक बदल चुका है। मंदिर के पुनर्निर्माण के कारण तीनों तीर्थंकरों के बाजू वाली दीवार पर जो मनोरम भित्तिचित्र अंकित थे, वे नष्ट हो गए। सौभाग्यवश ये भित्तिचित्र कुछ शोधार्थियों के प्रयासों से  धरोहर के रूप में डिजिटल रूप में  संरक्षित है।

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