मंगलवार, 28 नवंबर 2023

बेटियां


बेटियां घरों की रौनक होती हैं। जिस घर में बेटियां होती हैं,वह घर उनकी खुशबू से महकता रहता है। बेटियों की परवरिश फुलवारी की तरह बड़ी नफासत के साथ की जाती है। इसलिए बेटी का पिता बनना बहुत गौरव की बात है। बच्चों पर स्वाभाविक रूप से अपने माता-पिता का गहरा प्रभाव होता है।वे अपने माता-पिता की छोटी -छोटी बातों को बहुत ध्यान से देखते हैं और अपनी बालबुद्धि से उनका विश्लेषण कर जाने अनजाने में उन्हें ग्रहण और आत्मसात कर लेते हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों का अधिकांश समय घर अधिक व्यतीत होता है इसलिए उन्हें स्वाभाविक रूप से अपनी मां का सानिध्य अधिक मिलता है। ऐसे में मां की जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है क्योंकि उसे घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी संभालने के साथ-साथ बच्चों की परवरिश का बोझ अतिरिक्त रूप से उठाना पड़ता है। चूंकि लड़कियां पराए घर जाती हैं इसलिए उन्हें गृहकार्य में दक्ष करने के अलावा एक अनजाने परिवार में लगभग अपरिचित लोगों के साथ व्यावहारिक स्तर पर समायोजन करना सिखाया जाता है ताकि उसे अपने भावी वैवाहिक जीवन में कठिनाईयों का सामना न करना पड़े। स्त्री हर घर -गृहस्थी का मूल आधार होती है। इसलिए लड़कियों की परवरिश बहुत जिम्मेदारी के साथ करनी चाहिए। बच्चों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भर काफी नहीं होता। उनकी भावनात्मक जरूरतों का भी उचित ख्याल रखना चाहिए। लड़की महज एक व्यक्ति नहीं है बल्कि परिवार की मान-प्रतिष्ठा की वाहक भी है। उसके व्यवहार में उनके परिवार के संस्कार अभिलक्षित होते हैं। लेकिन वर्तमान में देखने में आ रहा है कि लड़के और लड़की में कोई भेद न करने की सोच के चलते परिजनों विशेष रूप से मां ने अपनी लड़की पर अतिरिक्त ध्यान और तवज्जुह देना कम कर दिया है। जिसका दुष्परिणाम प्रत्यक्ष देखने में आ रहा है। लड़कों की तरह लड़कियों का इंटरेक्शन-सर्किल भी काफी बड़ा हो गया है। संचार साधनों की सर्वसुलभता की वजह से दुनिया मानो मुट्ठी में कैद हो गई है।एक युवा होती लड़की जो अनेक जैविक बदलावों का सामना कर रही होती है, उसकी सोच हिचकोले खाने लगती है।नई स्थिति -परिस्थिति में खुद को किस तरह संभालना है , उसे समझ नहीं आता। ऐसी स्थिति में उसकी मां की भूमिका और जिम्मेदारी दोनों बढ़ जाती है क्योंकि वह इस नई परिस्थिति और उसकी वजह से पैदा हुई भावानात्मक उथल-पुथल से अच्छी तरह से परिचित होती है। लेकिन उदासीनता और पारिवारिक अंतर्कलह या किसी अन्य कारण से जब मांएं अपनी इस जिम्मेदारी को निभाने से चूक जाती है तो उसके परिणाम सभी के लिए बहुत विनाशकारी होते हैं। लड़की भटक कर गलत रास्ते पर जा सकती है। वरहिया समाज में भी ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। जिसके कारण उनका पूरा परिवार और समाज शर्मसार हुआ है।यह एक सामाजिक त्रासदी है। ऐसी सामाजिक दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो,यह सुनिश्चित करना पूरे समाज का सामूहिक उत्तरदायित्व है। किसी की भर्त्सना और उपहास करके हम अपने इस सामाजिक दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते। हमारी शीर्ष संस्थाएं इस दिशा में क्या सकारात्मक काम कर रही हैं,यह एक यक्ष प्रश्न है!
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