गुरुवार, 30 नवंबर 2023

चातुर्मास

'रमता जोगी, बहता पानी' यह कहावत लोकप्रसिद्ध है। इसलिए जैन साधु एक स्थान पर मठ बनाकर स्थायी रूप से न रहकर घूम-घूम कर धर्मोपदेश करते हैं।"चरैवेति चरैवेति" ही उनका जीवनादर्श होता है।केवल वर्षाकाल इसका अपवाद है जिसमें वे भ्रमण न कर एक स्थान पर ही धर्मसाधना के लिए रुककर समय व्यतीत करते हैं और धर्मोपदेश कर लोककल्याण करते हैं।यह प्रवास चातुर्मास कहलाता है।एक अनुमान के अनुसार महज 4 महीनों के इस अल्प समय में ही संपूर्ण भारत में जैन समाज के लगभग 1000 करोड़ ₹  से ज्यादा खर्च हो जाते हैं क्योंकि हमारे हाईटेक साधु-संत समाज कल्याण के कार्यों का अनुमोदन करने के स्थान पर आजकल  नित नए-नए निर्माणों का अनुमोदन कर अपने गौरव -स्मारक खड़े करने में रुचि ले रहे हैं। प्रायः सभी प्रमुख साधुओं के अपने यूट्यूब चैनल भी हैं।साधु भगवंतों का अपवाद करना मेरा मंतव्य नहीं है लेकिन जब देश में दर्जनों  तीर्थ  पहले से ही उपेक्षित और असुरक्षित हैं तब नवीन जिनालयों और तीर्थों के निर्माण का भला क्या औचित्य है?समाज के प्रबुद्ध लोगों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि साधुओं के चातुर्मास में प्रतियोगी भाव से करोड़ों रुपए व्यय करने से अच्छा है कि पूरे समाज के सभी पंथ एकजुट होकर अस्पतालों और जैन कॉलेजों के निर्माण का संकल्प लें, जिससे नयी पीढ़ी को सही दिशा मिले और उनकी दशा सुधरे। इससे उन्हें ज्ञान लाभ के साथ ही समाज की एकजुटता का मार्ग प्रशस्त होगा। धनवत्ता का भोंडा प्रदर्शन कर इन आयोजनों पर अनावश्यक अतिव्यय करने के बजाय ऐसे जरूरी और सकारात्मक कदम उठाना समय की मांग हैं ताकि धर्म की सच्ची प्रभावना हो सके क्योंकि कहा भी है कि 'भूखे भजन न होहि गोपाला'।यह विडंबना ही है कि सादगी को आदर्श मानने वाला समाज आज अपनी भव्यता और प्रदर्शनप्रियता पर मनोमुग्ध है 🤔
 

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