मंगलवार, 30 जनवरी 2024

बजरंगगढ़ अतिशय क्षेत्र


 

बजरंगगढ़ की स्थापना पूर्वी मालवा में गुना के निकट राघौगढ़ के शासक चौहान खींची वंश के राजा जयसिंह  (1797-1818 ई.) ने की थी। यह राघौगढ़ राज्य की दूसरी राजधानी थी । झारकोन किले के परिसर में स्थित यह नगर अतीत में जयनगर के नाम से जाना जाता था।राजा जयसिंह खींची ने इसका नाम अपने आराध्य बजरंगबली के नाम पर बजरंगगढ़ रखा। बजरंगगढ़ का किला प्राचीन है जो एक ऊंची पहाड़ी पर 72बीघे में फैला हुआ है । राजा जयसिंह ने इसका नवनिर्माण कराया था। पहले यहां यादवों का प्रभुत्व रहा है।इस किले में मोतीमहल, दरबारी बैठक, रनिवास, बजरंग मंदिर ,रामबाण तोप तथा राजा धीरजसिंह का चबूतरा है, जो दर्शनीय है। किले में अनेक कुण्ड भी हैं। यहीं श्री जगनेश्वर मंदिर तथा राजा जयसिंह के नाम का तालाब भी है तथा राम मंदिर, गणेश मांदिर, गोपाल मंदिर तथा छतरियां भी हैं। बजरंगगढ़ के किले से दो कि.मी. की दूरी पर पश्चिम दिशा में बीस भुजा देवी का मंदिर है जहां क्वार तथा चैत्र मास में नवदुर्गा का मेला लगता है। इस नगर में राजा जयसिंह ने एक टकसाल की स्थापना की थी,जहाँ सोने-चॉंदी व ताम्बे के सिक्के ढाले जाते थे। इन सिक्कों को जयसिंह शाही सिक्के कहा जाता था। यहाँ उन्होंने अपनी एक शिकारगाह भी स्थापित की थी। जयसिंह साहित्यिक अभिरुचि के व कलाप्रेमी शासक थे। उन्होंने प्रतापशाही जैसे कवियों को संरक्षण दिया।जिन्होंने जयसिंह रासो नामक काव्य रचना की। उन्होंने ईस्वी सन् 1794 में प्रख्यात ज्योतिर्विद वराहमिहिर के ग्रंथ वृहदजातक का हिन्दी पद्यानुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कीर्ति कौमुदी नामक ग्रंथ की रचना की। राजा जयसिंह के समय में ही 'राघौगढ़ की होरी रची गई, जो बाद में राघौगढ़ का राज्यगान बन गई। अतिशय क्षेत्र बजरंगगढ़ लगभग 1200 वर्ष पुराना है, जो गुना जिले के पश्चिम में गुना-आरोन- सिरोंज मार्ग पर स्थित है। यह स्थान भगवान शांतिनाथ (18 फीट), कुंथुनाथ (10 फीट, 9 इंच) और अरहनाथ (10 फीट, 9 इंच) की खड्गासन (खड़ी मुद्रा) वाली आकर्षक चमत्कारी मूर्तियों के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। जैन श्रेष्ठि श्री पाड़ाशाह ने मुख्य प्राचीन मंदिर का निर्माण विक्रम सवत 1236 (1181) मे करवाया था। एक किंवदंती के अनुसार श्री पाड़ाशाह को यहां पारस पत्थर प्राप्त हुआ था, जिसके कारण उन्होंने उससे बनाए गए सोने से इस मंदिर का निर्माण कराया। बजरंगगढ़ के शांतिनाथ मंदिर में अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां भी हैं। इसे अतिशय क्षेत्र भी कहा जाता है ।ऐसी मान्यता है कि यहाँ पूजा के लिए स्वर्ग से देवता आते हैं तथा यहाँ के अनेक व्यक्तियों ने अर्धरात्रि  में संगीत सुना है। यह भी मान्यता है कि विक्रम संवत 1943 (1886 ई.) में कुछ व्यक्तियों ने इन मूर्तियों को जब नष्ट करने का प्रयास किया तब अचानक यहाँ अग्नि प्रज्वलित हो गई। जिससे भयभीत होकर  वे अपराधी भाग गए।बजरंगगढ़ का नवनिर्मित जैन मंदिर 28 हजार वर्ग फुट में बनाया गया है । मंदिर की नींव 12-18 फुट गहरी है।इस मंदिर में रिइन्फोर्समेंट के लिए सरिए का इस्तेमाल नहीं हुआ है और लगभग 80 फीट घेरे वाला इसका पूरा गुंबद सिर्फ ईटों से बना है। किसी पिलर या पत्थर का कोई सहारा नहीं है बल्कि पूरा ढांचा ईंट, बजरी व सीमेंट के बल पर  टिका हुआ है। इसी तरह हॉल की 34 फीट चौड़ी छत भी बिना किसी सहारे के टिकी है। यह भी सिर्फ ईट से बनी हुई है।  करीब 3 करोड़ की लागत से इसका मूल ढांचा बनकर तैयार हो चुका है। सपाट छतों से लेकर गोल गुंबद तक सभी ईंट,बजरी और सीमेंट से बने हैं। इन ढांचों को अपनी जगह टिकाए रखने के लिए सदियों पुरानी आर्क या मेहराब तकनीक का इस्तेमाल हुआ है। इस पुरानी तकनीक से बने किसी भी ढांचे की उम्र 400 से 500 साल तक रहती है। जबकि आरसीसी का ढांचा 100 साल से ज्यादा नहीं टिकता। संप्रति मंदिर निर्माण प्रगति पर है।इसका निर्माण मुनिपुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से हो रहा है।यहां स्थित अन्य समवशरण जिनालय दर्शनीय हैं।मुख्य बाजार में स्थित भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित जिनालय का निर्माण श्री जीतूशाह द्वारा कराया गया है तथा दूसरे का निर्माण श्री हरिश्वन्द्र तारक ने करवाया है। तारक जी के मंदिर में आकर्षक भव्य चित्रात्मक त्रिकाल चौबीसी तैयार की जा रही है। बजरंगगढ़ में कार्तिक शुक्ल पंचमी को वार्षिक मेला लगता है। यहीं भगवान शांतिनाथ के जन्मदिवस को मनाने हेतु तप एवं मोक्ष कल्याणक उत्सव चौदह वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान में पुराने मंदिर का स्वरूप बड़ी सीमा तक बदल चुका है। मंदिर के पुनर्निर्माण के कारण तीनों तीर्थंकरों के बाजू वाली दीवार पर जो मनोरम भित्तिचित्र अंकित थे, वे नष्ट हो गए। सौभाग्यवश ये भित्तिचित्र कुछ शोधार्थियों के प्रयासों से  धरोहर के रूप में डिजिटल रूप में  संरक्षित है।

सोमवार, 29 जनवरी 2024

कोहबर

कोहबर' संस्कृत शब्द कोष्ठ-वर का तद्भव रूप है। ऐसा स्थान जहाँ विवाह  के अवसर पर कुलदेवता की स्थापना की जाती है- कौतुकागार या 'कोष्ठवर' कहा जाता है । इसे कौतुकागार इसलिए कहते हैं क्योंकि वहां वर-वधू के साथ अनेक प्रकार का मनोविनोद और हास परिहास किया जाता है। कोहबर घर के उस पूरे कमरे को भी कहा जाता है जिसमें विशिष्ट आरेख द्वारा कुलदेवता की स्थापना की जाती है। कतिपय विद्वान कोहबर शब्द की व्युत्पत्ति 'कुक्षिभर' शब्द से मानते हैं। कुक्षिभर अर्थात कोख भरने की मनोकामना। हिंदी पट्टी में वर-वधू दोनों के घरों में कोहबर की रचना की जाती है। कई प्रान्तों में कोहबर को ' माय माता' तथा ' मेरू' भी कहा जाता है। वरहिया जैन समुदाय में कोहबर को वीध(प्रायः वीध बरही)कहकर संबोधित करते हैं।वीध शब्द संस्कृत वीध्र का तद्भव रूप है ,जिसका वाच्यार्थ -आकाश, अग्नि, वायु, निर्मल, पवित्र और शुद्ध है।कोहबर निर्माण की विशिष्ट संरचना लोक मानस द्वारा स्वीकृत है। कुमकुम की तेरह बिन्दी रखी जातीं हैं जो एक बड़े चतुर्भुज के भीतर तेरह त्रिभुजों में स्थित होते हैं। सभी त्रिभुज सात आड़ी रेखाओं पर बने होते हैं। चतुर्भुज की ऊपरी रेखा पर तीन खानों में नौ-नौ त्रिभुज होते हैं जो स्त्री -पुरुष के बोधक हैं। कोहबर का आलेखन चावल के आटे के घोल, गेरू और समी की हरी पत्तियों के रंग से किया जाता है। आजकल बाजार के रंगों का भी प्रयोग होने लगा है। वरहिया समुदाय में गेरू के लाल रंग से और नारियल की नरेली जलाकर तैयार किए गए काले रंग से यह अंकन किया जाता है।कोहबर के अंकन में सुंदरता लाने के लिए हल्दी-सिन्दूर का उपयोग किया जाता है। हल्दी-सिन्दूर मांगलिक रंग है जिनके प्रयोग से कोहबर में सौंदर्यवृद्धि के साथ ही पवित्रता का भी बोध होता है । हरे बाँस की पतली लकड़ी से कूंची (तूलिका) बनाई जाती है। कूंची के अभाव में छोटी-पतली लकड़ी के एक सिरे में रुई लपेटकर तूलिका तैयार की जाती है। चूने या सफेद खड़िया मिट्टी से पुती दीवाल पर जहाँ 'कोहबर' बैठाना होता है, सर्वप्रथम चावल के आटे के घोल से घर की बहन या बेटी नहा-धोकर पुताई करती है। गेरू के गाढ़े घोल से कूँची के द्वारा 'कोहबर' का आरेख बनाया जाता है। छठी एवं बरही व कोहबर में हल्दी -सिंदूर के साथ कुमकुम की बिन्दी रखी जाती हैं।  छठी एवं बरही और कोहबर के आलेखन से सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के अभिप्रायों की पूर्ति होती है। कोहबर की रचना विधि में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। नहा-धोकर पवित्र तन-मन से कोहबर का आरेख खींचा जाता है और उसमें रंग भरा जाता है। आरेख खींचने वाली बहन-बेटी के तन -मन की पवित्रता उसकी कुशल क्षेम का संवर्द्धन कर उसके भीतर श्रेष्ठ विचारों को जन्म देती है।कोहबर का मनोरम चित्र घर के बालक-बालिकाएँ देखती हैं। उनके भीतर कला प्रेम पैदा होता है। रंगों के प्रभाव से बाल-मन न केवल प्रफुल्लित  होता है अपितु बालक-बालिकाओं का आह्लादित मन सौन्दर्य बोध और काव्य बोध की अनगढ़ अनुभूति से भर जाता है। बाल पीढ़ी के विकास में कोहबर चित्रण का यह महत्वपूर्ण अवदान है । कोहबर की आकृति त्रिभुज और चतुर्भुज के संयोग से बनती है। इससे बच्चों को रेखागणितीय बोध होता है। उनकी रचनात्मक क्षमता बढ़ती है। कोहबर चित्रण की उपादेयता का यह सामाजिक पक्ष उल्लेखनीय है। कोहबर में वर को लहकौर खिलाने की प्रथा है। लहकौर यानी छोटा-सा कौर (ग्रास) । कन्या की सहेलियाँ, साली, सलहजें दूल्हे को पूड़ी-मिठाई आदि के छोटे -छोटे कौर खिलाती हैं या खाने का अनुरोध करती हैं। इस प्रथा के पालन से दूल्हे के खाने-पीने की संस्कृति का मूल्यांकन किया जाता है। साथ-साथ हास-परिहास भी चलता है। कहीं -कहीं पर कुछ अन्य प्रथाएँ भी प्रचलित हैं। दूल्हे की सालियाँ बड़ी चतुराई से दूल्हे का जूता गायब कर देती हैं और कुछ फिरौती लेकर वापस करती हैं । यह विनोद दूल्हे की सतर्क बुद्धि के परीक्षण के लिये किया जाता है।कोहबर क्षेत्र- विशेष के लोकमानस की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति है और जिसमें मानवीय भावनाओं, सामाजिक आध्यात्मिक चिंतन के साथ रंगों और रेखाओं का अद्भुत समन्वय दिखता है। इसका सृजन वर-वधू के संरक्षण और कल्याण की दृष्टि से होता है जिससे वैवाहिक जीवन में स्वस्थ प्रवृत्तियों एवं जीवन दृष्टि के निर्माण का धरातल तैयार किया जा सके। कोहबर चित्रों में लोक जीवन का आदर्श एवं उसके प्रति आशावादी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का भाव और निष्काम कर्म की महत्ता कोहबर चित्रों की पृष्ठभूमि में है।कोहबर का वर्णन तुलसीदास के रामचरितमानस में मिलता है, बाण के हर्षचरित में भी इसकी चर्चा मिलती है।कला एवं कविता में सूक्ष्म सौंदर्य को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। प्रतीकों के बिना सूक्ष्म सौंदर्य की अभिव्यक्ति असंभव है। इस लिहाज से कोहबर को चित्रलिपि भी माना जा सकता है और शायद इसी वजह से कोहबर ‘बनाना’ नहीं ‘लिखना’ कहा जाता है। कोहबर लिखना केवल एक भाव का उद्घाटन ही नहीं है, वरन् गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर रहे वर-वधू को एक सफल और सार्थक जीवन जीने के अवबोधन का सृजनात्मक उद्यम है।कोहबर चित्र शुभ-लग्न, दिन और समय का विचार कर पूर्व या पश्चिमाभिमुख  बनाने की प्रथा है जिसे जानकार घर की बेटी, बहन या बुआ बनाती हैं। कोहबर पूर्ण होने पर नेग देने की भी परंपरा है।विवाह उपरांत कोहबर चित्रों को एक-सवा माह बाद किसी शुभ मुहूर्त में उठा देने या मिटा देने की परंपरा है।कहीं-कहीं कोहबर में बांस, पत्र, पुष्प, पेड़-पौधे, सूर्य-चंद्र, पशु-पक्षी, देवी-देव एवं वर-वधू के साथ कलश, ओखली और डोली-कहार आदि का चित्रण किया जाता है। इन चित्रों के साथ हाथ का थापा देने की भी परंपरा है। इसके लिए सबसे पहले चौकोर या आयताकार दीवार पर एक चित्राधार तैयार किया जाता है। आधार चौरठ अर्थात पिसी हुई चावल के लेप से तैयार किया जाता है। तैयार आधार पर गेरू से दुहरी रेखाओं (कहीं-कहीं इकहरी) का प्रयोग कर एक सुसज्जित कोहबर चित्र का रेखांकन तैयार किया जाता है और फिर उनमें मुख्यत: लाल, हरा, पीला और गेरूआ रंग भरा जाता है।कोहबर में “पंचांगुलांक” (खुली हाथ की हथेलियों का थापा) प्रतीक वर-वधू के जीवन में कर्म के महत्व को प्रदर्शित करने के साथ उसमें पंच-तत्व, पंच-देव,  पंच-महायज्ञ, पंच-परमेष्ठि के विशिष्ट अर्थ में विवक्षित संदेश निहित होता है। कहीं-कहीं पक्षी युगल और मीन युगल का अंकन वर-वधू के प्रतीक रूप में माना जाता है जो वर-वधू के जीवन में प्रेम,साहचर्य और प्रसन्नता की कामना का प्रतीकात्मक निरूपण है। मछली को उर्वर प्रजनन क्षमता का प्रतीक मानते हैं। इस कारण मछली का अंकन शुभ माना जाता है।कोहबर में सप्तमातृकाओं की पूजा की लोक प्रचलित मान्यता है ।ये सात देवियों जिन्हें बहन कहा जाता है, कोहबर में स्थान पाती हैं। इसमें “मायर” नाम का एक प्रतीक भी अंकित किया जाता है जिसमें ऊपर की ओर पांच आयताकार चिह्न बनाए जाते हैं जो नीचे से ऊपर छोटे होते जाते हैं। यह एक तरह का ज्यामितीय अंकन है जो सामान्यतः तालाब या पोखर के किनारे मंदिर का प्रतीकात्मक रूप बनाकर पूजा करने की लोक प्रचलित प्रथा का अनुसरण लगता है। मायर को भी एक देवी ही माना जाता है। मायर शब्द माय या मां शब्द का लोकरूप है जो अपनी महत्ता स्पष्ट करते हुए कोहबर में स्थान पाता है। इनके साथ ही कोहबर में श्रृंगार की सामग्री, शीशा-कंघी, सिंघोरा इन सभी का अंकन वधू के सौभाग्य और उनकी जीवन-सौंदर्य के प्रतीक के रूप में किया जाता है।साथ-ही-साथ जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं जैसे सिलबट्टा, ओखली-मूसल का भी अंकन किया जाता है। प्रकृति में व्याप्त छोटे-छोटे जीव-जंतु जैसे सांप, गोजर(कनखजूरा), बिच्छू इत्यादि का अंकन भी इसी भाव से होता है कि आप सभी विवाह के साक्षी हों, उन्हें आशीर्वाद दें और किसी भी रूप में नव-दंपत्ति को हानि नहीं पहुंचाएं। कोहबर में इसी भाव से आंधी-तूफान तक को बांध देने की प्रथा है। कोहबर में डोली-कहार का अंकन अनिवार्य रूप से होता है।
कोहबर के चित्रों का विषय सामान्यत: प्रजनन, स्त्री -पुरुष संबंध होता है, जिनका प्रतिनिधित्व पशु -पक्षियों, टोने-टोटकै के ऐसे प्रतीक चिहों द्वारा किया जाता है, जो वंश वृद्धि के लिये प्रचलित एवं मान्य हैं जैसे-बांस, हाथी, कछुआ, मछली, मोर, सांप, कमल या अन्य फूल  इत्यादि। वधू के माता-पिता पाणिग्रहण के समय घी-तेल की जो धार बहाते हैं वह वधू के निरंतर और अखंड सौभाग्य के लिए होती है।कोहबर अंकन के प्रसंग में इससे जुड़ी एक अन्य 'मौरते' लिखने की प्रथा का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा ।इस प्रथा में जब बरात कन्यापक्ष के घर चली जाती है, तब घर की महिलायें कुलदेवता के स्थान पर व मंदिर जाती हैं। वहाँ वे मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर दीवार पर गेरू से तैयार किए रंग से एक-एक चतुर्भुज बनाती हैं और इस चतुर्भुज के ऊपर बीचोंबीच एक-एक त्रिभुज बना देती हैं । इसे 'मौरते लिखना' कहते हैं। 'मौरते' लिखना एक लोकरीति है। और ऐसा प्रतीत होता है कि ये मानव-सृष्टि के मूल पुरुष और मूल स्त्री के परिणयसूत्र में बंधने के स्मृति के प्रतीकात्मक अवशेष हैं ।जब वधू  विवाह के पश्चात ससुराल आती हैं, तब उसी दिन या किसी दूसरे दिन, वर-वधू दोनों को 'देवती- देवता' पूजने के लिए कुलदेवता के स्थान पर व मंदिर भेजा जाता है। उनके साथ में घर परिवार की अन्य स्त्रियां भी रहती हैं। जब वर-वधू मंदिर पहुँचते हैं तो दोनों ' गठजोरा' पकड़ लेते हैं और अपने दोनों हाथों को हल्दी में डुबोकर मंदिर के द्वार के दोनों 'कौरों' पर (क्रोड=द्वार की इधर-उधर की दीवार का वह भाग जिस पर किबाड़ खुलने पर सट जाते हैं) 'हाथे' छापते हैं। ये हाथे(हस्तछाप) दरवाजे के दाहिनी ओर एक-एक एवं बायीं ओर एक वर का दो वधू के इस प्रकार तीन हाथे छापे जाते हैं। ये हाथे पूर्व में बनाये गये 'मौरते' के ऊपर दीवार पर लगवाये जाते हैं।

शनिवार, 27 जनवरी 2024

पटनागंज रहली




 सुनार (स्वर्णभद्र तथा देहार नदियों के संगम पर अवस्थित रहली नगर सागर जिले के अंतर्गत आता है । यह सागर के दक्षिण पूर्व की ओर 42 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । पक्की सड़क द्वारा जबलपुर, सागर, देवरी तथा गढ़ाकोटा से जुड़ा हुआ है। सुनार नदी प्राचीनतम महत्व की नदी है तथा प्रो. एस.एम. अली ने मत्स्यपुराण में उल्लिखित शुनी नदी के रूप में उसकी पहचान की है। रहली के निकट ग्राम कड़ता की खुदाई के दौरान प्राप्त अवशेषों से तथा रानगिर मार्ग पर देहार नदी की घाटी में प्राप्त शैलचित्रों से यह ज्ञात होता है कि रहली का क्षेत्र प्रागैतिहासिक युग से ही मानवीय गतिविधियों का केंद्र रहा है। यहाँ उत्खनन में पुरापाषाणकालीन तथा मध्यपाषाणकालीन उपकरण भी मिले हैं। सुनार नदी के तट पर एक ही परकोटे में अतिप्राचीन 30 गगनचुंबी जिनालयों की लंबी श्रृंखला है। बताते हैं कि इस क्षेत्र पर जब मुगल शासक औरंगजेब ने हमला किया तो मधुमक्खियों के हमले से मुगल सेना के पैर उखड़ गए थे और उन्हें वापस लौटना पड़ा। यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से भी सम्पन्न रहा है। रहली जब मराठा शासकों के आधिपत्य में रहा तब यहाँ सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक कार्य हुए। यहाँ का सांस्कृतिक गौरव वह सूर्य मंदिर है, जो टीकमगढ़ के मढ़खेरा के सूर्य मंदिर का समकालीन है। यह सुनार नदी के पश्चिमी तट पर अवस्थित है तथा यह लगभग 1200 वर्ष पुराना है, जिसे प्रतिहारों ने निर्मित किया था।सुनार नदी के दायें तट पर अवस्थित पटनागंज में बना हुआ जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र माना जाता है। कहा जाता है कि यह अतिशय क्षेत्र लगभग 800 वर्ष प्राचीन है। वास्तव में यह विभिन्न मंदिरों का एक समूह है, जहाँ जैन तीर्थकरों की मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । यह उत्तर भारत की नागर शैली में निर्मित है। इस अतिशय क्षेत्र को प्राचीनकाल से ही पटनागंज कहा जाता है।पूज्य क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी सन् 1944 में जब रहली क्षेत्र पधारे तो अतिशय क्षेत्र पटनागंज की दुरवस्था देखकर बहुत दु:खित हुए। उन्होंने पटनागंज के जीर्णोद्धार का दृढ़ निश्चय किया। उन्होंने संपूर्ण जैन समाज को एकसूत्र में बांधकर वहां जीर्णोद्धार का श्रीगणेश कराया और उसे भव्यता प्रदान की।एक ही परकोटे में एक साथ 30 भव्य जिनमंदिरों में प्रतिष्ठित अतिशयकारी प्रतिमाओं के समूह में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की अद्वितीय प्रतिमा उल्लेखनीय है। भगवान मुनिसुव्रत नाथजी की प्राचीनता की दृष्टि से भारत की सबसे विशाल पद्मासन प्रतिमा जो कत्थई वर्ण में है और अपने आप में अनूठी है।मंदिर क्र. 3 जो मुनि सुव्रतनाथ भगवान को समर्पित है, ईस्वी सन् 1488 में निर्मित है। यह तथ्य प्रतिमा की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट होता है। इसी प्रकार मंदिर क्र. 4 भी लगभग 400 वर्ष पुराना है। मंदिर क्र. 26 व 27 क्रमशः ईस्वी सन् 1523 तथा 1491 में निर्मित हैं । इन मंदिरों का निर्माण विभिन्न कालखण्डों में हुआ है तथा इनका निर्माण जैन श्रेष्ठियों द्वारा कराया गया है। मंदिर के सभागृह में भित्तिचित्रों के बीच एक दोहा अंकित है, जिससे यह विदित होता है कि इसका निर्माण सेठ नारायणदास तथा उनकी धर्मनिष्ठ माँ केशरबाई ने कराया था। इसी मंदिर में दशवीं शताब्दी की दो प्रतिमाएँ एवं एक प्रतिमा अन्य वेदी पर स्थापित है। साथ ही साढ़े तीनफुट उत्तुंंग मूंगावर्ण की भगवान शांतिनाथ जी की अलौकिक प्रतिमा भी इसी मंदिर में सुशोभित है। प्राचीन रचनाओं में नंदीश्वर द्वीप और पंचमेरु जिनालय के साथ ही समवसरण की रचना भी अतिप्राचीन कला से परिचित कराती है। अनुपम और अनूठी रचनाओं में दुनिया का सबसे बड़ा सहस्रकूट चैत्यालय जो स्थापत्य का अद्भुत नमूना है, यहां अवस्थित है।इस 9 फुट ऊँचे अति प्राचीन सहस्रकूट चैत्यालय में 32 फुट की गोलाई में खड्गासन और पद्मासन मुद्रा में 1008 अरहंत प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।केशरवृष्टि आदि अनेक अतिशययुक्त इस प्राचीन क्षेत्र में विराजित भगवान पार्श्वनाथ की एक हजार आठ सर्प फणों से युक्त संसार की सबसे विशाल सहस्रफणी प्रतिमा यहां स्थित है। भगवान महावीर स्वामीजी की (प्राचीनता की दृष्टि से) भारत की सबसे विशाल पद्मासन प्रतिमा पटनागंज के बड़े बाबा के रूप में विद्यमान है। विशेष बात यह है कि प्रतिष्ठित स्थल पर ही विशाल चट्टान में आसन सहित विशालकाय प्रतिमा उत्कीर्ण होने पर जब इसे अन्यत्र ले जाना संभव नहीं हो सका, तो इसी स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण किया गया, जो कि सदियों से अपनी अतिशययुक्त विशेषताओं के कारण आस्था का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। भारत की सबसे विशाल भगवान महावीर स्वामी की 13 फुट उत्तुंग इस पद्मासन प्राचीन प्रतिमा के दर्शन कर धर्मावलम्बी श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएँ पूर्णकर सदियों से अपने जीवन को सफल और धन्य करते आ रहे हैं। बड़े बाबा की इस विशालतम प्राचीन और अतिशयकारी प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक विशेष अवसरों पर ही सम्पन्न होता है। जैन मंदिरों में अनेक भित्तिचित्र बने हुए हैं,जो बहुत ही सुंदर और महत्वपूर्ण हैं लेकिन संरक्षण के अभाव में और उपेक्षा के कारण अब वे नष्ट होने के कगार पर हैं। कलात्मकता की दृष्टि से ये अंकन महत्चपूर्ण हैं जो अठारहवीं सदी के बने हुए प्रतीत होते हैं और इस बात की पुष्टि उस समय के स्थापत्य व पुरुष आकृतियों के द्वारा पहने गए परिधानों से होती है। इन अंकनों में पद्मासन की मुद्रा में बैठे तीर्थंकर, संभवतः सम्मेदशिखरजी के दर्शन करने के लिए जाते जैन श्रेष्ठि, सम्मेदशिखरजी व अन्य जैन मंदिरों का स्थापत्य, मयूर तथा विभिन्न आकल्पन दिखाई देते हैं।जनुश्रुतियों के अनुसार रहली चौदहवीं शताब्दी में फौलादी अहीरों के द्वारा बसाया गया था, जो बाद में राजा छत्रसाल बुन्देला के आधिपत्य में आया। उन्होंने ईस्वी सन 1731 में पेशवा बाजीराव को इसे दे दिया तथा मार्च 1818 में यह मेजर रोज़ के अधिकार में चला गया। सन 1857 में बुन्देला विद्रोहियों ने इस पर अधिकार कर लिया, जिसे बाद में अंग्रेजों ने पुनः हस्तगत कर लिया।रहली में अहीरों और पेशवाओं के समय के खंडहर आज भी बिखरे पड़े हैं। यहाँ के जैन मन्दिरों में भगवान आदिनाथ, भगवान भरत तथा भगवान बाहुबली की सुंदर मूर्तियाँ हैं।10वीं सदी की दो प्रतिमाएँ भी यहाँ विद्यमान हैं।  

मंगलवार, 2 जनवरी 2024

हमारा भवितव्य


 जिनकी महत्वाकांक्षा के डैने (पंख) बड़े हो गए हैं उन्हें उड़ने के लिए समाज का आंगन छोटा पड़ने लगा है। उन्हें उन्मुक्त उड़ान भरने के लिए अब और बड़ा आसमान चाहिए। इसलिए अब वरहिया समाज के लोग परवार,पल्लीवाल, खंडेलवाल इत्यादि समाज के लड़कों के साथ अपनी लड़कियों के रिश्ते करने की दिशा में बढ़ चले हैं। हालांकि सामान्यतः  प्रत्येक व्यक्ति  विवाह सम्बन्ध करने में सजातीय समाज को ही प्रमुखता देता है लेकिन जब अपनी समाज में उसे उपयुक्त लड़की नहीं मिलती है या किसी कुलीनतागत हीनता के कारण समाज में उसे मान्यता नहीं मिलती है तभी वह अन्य समाज की ओर उन्मुख होता हैं । चूंकि  लिंगानुपात बिगड़ने की वजह से सभी समाज लड़कियों की कमी की सर्वग्रासी समस्या से जूझ रहे हैं। इसलिए उन्हें अन्य समकक्ष समाज से लड़की स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है। लेकिन यहां यह बात विचारणीय और रेखांकित करने योग्य है कि वे आपकी लड़कियां तो स्वीकार कर रहे हैं लेकिन अपनी लड़कियां आपके यहां देने में उन्हें कोई रुचि नहीं है और वे आपको महत्व या वरीयता नहीं देते। ऐसा इसलिए है क्योंकि आप उनकी प्राथमिकता सूची में ही नहीं हैं।अब यक्ष प्रश्न यह है कि  यदि समाज की पढ़ी-लिखी अधिकांश लड़कियां बाहर चली जाएंगी तो आपके विवाह योग्य लड़कों के लिए पहले से ही लड़कियों की कमी से जूझ रही वरहिया समाज में वधू के रूप में लड़कियों की सुलभता और घटेगी । इसके अलावा जब समकक्ष विजातीय समाज में आपकी पहल पर  जब कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया या रिस्पांस नहीं मिलेगा तो आप अपने विवाह योग्य लड़कों के लिए वधू की तलाश में क्या बिहार और उड़ीसा का रुख करेंगे। क्या अब हमारा भवितव्य यही है? क्या यह अधोपतन की स्थिति नहीं है ?

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

जड़ता


 बरसों से बैठे हैं जो पालथी मारकर ,
उनका गुण संकीर्तन सारे जन करते हैं।


किसमें साहस,उनकी ओर उठाए उंगली,
नाम जीभ पर भी लाने भर से डरते हैं।।


जो छक आए हैं मधुरस उनके घर जाकर
वे समाज में उनका ही जप उच्चरते हैं।


 फिरते है जो मल्ल,शूरमा ताल ठोकते
वे भी उनसे आंख मिलाने से डरते हैं।


आएगा बदलाव भला फिर कैसे, बोलो
दशकों बीत चुके हैं अब तो आंखें खोलो।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

चुनाव


  आने वाला है चुनाव,सो बिछने लगीं बिसातें/लगे बिठाने वे लोगों के मन में, अपनी बातें।।

सबकी कोशिश है,अपनी लॉबी ही चुनकर आए/ यही सोच सबने ही हाथी, घोड़े,ऊंट सरजाए।।

उनका सिक्का चले इसी कोशिश में सारे लोग/करने लगे किंगमेकर पटु-बुद्धि का उपयोग।।

लगे दौड़ने सरपट फिर से अश्वमेशके अश्व/ क्योंकि उनको ही रखना है अपना धुर वर्चस्व।।

क्यों?


 क्यों समाज में दिखते ,कुछ ही चेहरे हैं।
एक जगह क्यों हम ,बरसों से ठहरे हैं।।
 

सुनकर भी अनसुना कर रहे प्रश्नों को
जानबूझकर बने हुए क्यों बहरे हैं।।


 यह सवाल उठता है बरबस ही मन में,
कुछ सर पर ही  सजते क्यों ये सेहरे हैं।
 

कुछ कहने की गुस्ताखी करने पर ,ये
बैठा देते उस पर सौ-सौ पहरे हैं।


क्यों समाज में दिखते, कुछ ही चेहरे हैं
एक जगह क्यों हम ,बरसों से ठहरे हैं।।